Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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- प ६५४॥
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जिनके वहां एक अभयघोष नामा मुनि सब मुनियों में श्रेष्ठ संदेह रूप पाताप की शांतिके अर्थ केवला से पूछते भए हे सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञदेव ज्ञानरूप शुद्ध आत्मा तत्वका स्वरूप नीके जानने से मुनिनको केवल बोघहोयउसका निर्णयकरो, तब सकलभूषण केवली योगीश्वरोंके ईश्वरकर्मोंके क्षयका कारण तत्वका उपदेश दिव्यध्वनिकर कहतेभए हे श्रेणिक केवलीने जो उपदेशदिया उसकार हस्य में तुमको कहूं हूं जैसेसमुद्र में से एक बन्द कोई लेयतैसे केवलीकी वाणी अतिप्रथाहउसके अनुसार संक्षेपव्याख्यान करूं हूं सोसुनो॥ ___हो भव्य जीव हो अात्म तत्व जो अपना स्वरूप सो सम्यक् दर्शन ज्ञान आनन्द रूप
और अमूर्तीक चिद्रप लोक प्रमाण असंख्य प्रदेशी अतेंद्री अखंड अव्याबाघ निराकार निर्मल निरंजन पर वस्तुसे रहित निज गुण पर्याय स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव कर अस्तित्व रूप है जिसका ज्ञान । निकट भव्यों को होय शरीरादिक पर वस्तु, असार हैं अात्मतत्व सार है सो अध्यात्म विद्या कर पाइये है वह सब का देखन हारो जाननहारा अनुभव दृष्टि कर देखिये आत्मज्ञान कर जानिये और जड़ पदार्थ पुद्गल धर्म अधर्मकाल आकाश ज्ञेयरूपहें ज्ञाता नहीं और यह लोक अनन्ते पालोका काश के मध्य अनन्त में भाग तिष्ठे हैं अधोलोक मध्य लोक ऊर्घलोक ये तीनलोक तिनमें सुमेरु पर्वतकी जड़ हजार योजन उसके तले पाताल लोक है उसमें सूक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र हैं और बादरास्थावर अाधार में हैं विकलत्रय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं मनुष्य नहीं खरभाग पंकभाग में भवनवासी देव तथा वितरदेवोंके निवास हैं तिनके तले सात नरक हे तिनके नाम रत्नप्रभा १ शर्करी २ वालुका ३ पंकप्रभा ४ धूमप्रभा५ तमःप्रभा ६ महातमप्रभा ७ सो सातोंही नरक की धरा महा दुःखकी देने हारी सदा अन्धकाररूपहै चार
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