Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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18५३
पन क्यों हरें ऐसे अविचार के वचन कहे लक्ष्मण समझावे सो समाधान न भया और क्रोध संयुक्त श्री घराण। रामचन्द्र सकल भूषण केवली की गन्ध कुटी को चले सो दूर से सकल भूषण केवली की गन्ध कुटी ।
देखी केवली महा धीर सिंहासन पर विराजमान अनेक सूर्य की दीप्ति घरे केवली ऋद्धि कर युक्त । पापों के भस्म करिख को साक्षात् अग्नि रूप जैसे मेघपटल रहित सूर्य का रिम्ब सोहे तैसे कर्म पटल।
केवली ज्ञान के तेजकर परम ज्योति रूप भासे हैं इन्द्रादिक समस्त देव सेवा करे हैं दिव्य ध्वनि खिरे है धर्म का उपदेश होय है सो श्रीराम गन्धकुटी को देख कर शांतचित्त होय हाथी से उतर प्रभ के समीप गए तीन प्रदक्षिणा देय हाथ जोड़ नमस्कार किया भगवान् केवली मुनियों के नाथ तिन का दर्शन कर अतिहर्षित भए बोरम्बार नमस्कार किया केवली के शरीर की ज्योति की छटा राम पर
आय पड़ी सो अतिप्रकाश रूप होय गए भाव सहित नमस्कार कर मनुष्यों की सभा में बैठे और चतुर निकाय के देवों की सभा नाना प्रकार के प्राभूषण पहिरे ऐसी भासे मानों के वली रूप जे गव तिनकी किरण ही है और राजावों के राजा श्रीरामचन्द्र केवली के निकट ऐसे सोहे हैं मानों सुमेरु के शिखर के निकट कल्पवृक्ष ही हैं और लक्ष्मण नरेन्द्र मुकट कुण्डल हारादि कर शोभित कैसे सोहें मानों विजुरी सहित श्याम घटो ही है और त्रुध्न शत्रुवों के जीतनहारे ऐसे सोहे मानों दूसरे कुवर ही हैं और लव अंकुश दोनों पीर महा धीर महा सुन्दर गुण सौभाग्य के स्थानक चांद सूर्य से सोहैं
और सीता आर्यिका आभूषणादि रहित एक वस्त्र मात्र परिग्रह ऐसी सोहे मानों सूर्यकी मूर्ति शांतता को प्राप्त भई है मनुष्य और देव सब ही विनय संयुक्त भूमि में बैठे धर्मश्रवण की है अभिलाषा ।
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