Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पागा
नहीं यह महा शलवन्ती परम श्राविकाहै इसे मरणका भय नहीं यह लोक परलोक मरण वेदना प्रक ॥६४८० स्मात असहायता चोर यह सप्तभया तिनकर रहित सम्यकदर्शन इसके दृढहै यह अग्नि विषे प्रवेश
करेगी और मैं रोकू तो लोगोंमें लज्जा उपजे और यह लोक सब मुझे कह रहे यह महा सती है याहि
आग्नकुंड में प्रवेश न करावो सो में न मानी और सिद्धार्थ हाथ ऊंचे कर कर पुकागदं न मानी सो वह भी चुपहोय रहा अब कौन मिसकर इसे अग्नि कुण्डमें प्रवेश न कराऊं अथवा जिसके जिस भांति मरण उदय होय है उसी भांति होय है टारा टरे नहीं तथापि इसका वियोग मुझसे सहान जाय इसभांति राम चिंता करे हैं और वापा में अग्नि प्रज्वलित भई समस्त नर नारियों के प्रांसुवों के प्रवाह चले धम कर अंधकार होय गया मानों मेघमाला प्रकाश में फैलगई श्राकाश भ्रमर समान श्याम होय गया अथवा कोकिल स्वरूप होयगया अग्नि के धमकर सूर्य प्राछादित हुश्रा मानों सीता का उपसर्ग देख नसका सो दयाकर छिपगया ऐसी अग्नि प्रज्वली जिसकी दूरतक ज्वाला विस्तरी मानों अनेकसूर्य ऊगे अथवा अाकाश में प्रलयकाल को सांझ फूली जानिये दशों दिशा स्वर्णमई होय गई हैं मानों जगत्. विजुरीमय होय गया अथवा सुमेरुके जीत को दूजा जंगम सुमेरु और प्रकटा नव सीता उठी अत्यन्तनिश्चलचित्त कायोत्सर्ग कर अपने हृदय में श्री ऋषभादि तीर्थकरदेव विराजे हैं तिनकी स्तुतिकर मिद्धोंको साधुवों को नमस्कार कर श्री मुनिसुव्रत नाथ हरिवंश के तिलक वीसमा तीर्थकर जिन के तीर्थ विषे ये उपजे हैं तिन का ध्यान कर सर्व प्राणियोंके हितु आचार्य तिनको प्रणाम कर सर्व जीवों मे क्षमाभाव कर जानकी कहती भई मन कर वचनकर काय कर स्वप्न विषे भी राम बिना और पुरुष में नजाना जो
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