Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
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पुरा
अकेली भयानक बनमें नजकर जाऊं हूं । हे श्रेणिक जैसे कोई धर्म की बुद्धि को तजे तसे वह सीता को बन ८६३ में तकर अयोध्या को सन्मुख भया अति लज्जावान् होयकर चलो और सीता इसके गए पीछे केतीक वार में मूर्छा सचेत होय महा दुख की भरी युथ भ्रष्ट मृगी की न्याई विलाप करती भई सो इसके रुदन कर मानों सबही बनस्पति रुदन करे हैं वृक्षों के पुष्प पडे हैं सोई मानो प्रांसु भए स्वतः स्वभाव महा रमणीक इसके स्वर निकर विलाप करता भई महा शोक की भरी हाय कमलनयन राम नरोत्तम मेरा रक्षा करो मुझसे वचनालाप करो, और तुम तो निरन्तर उत्तम चेष्टा के धारक हो महागुणवंत शांतचित्त हो तुम्हारा लेशमात्र भी दोष नहीं तुम तो पुरुषोत्तमहो में पूर्व भवमें जो अशुभ कर्म की एथेतिनके फल पाये जैसा करना तैसा भोगना क्या करे भर्तार और क्या करे पुत्र तथामाता पिता पांधव क्याकरे अपना कर्म अपने उदय आावे सो अवश्य भोगना में मन्दभागिनी पूर्वजन्म में अशुभ कर्म कीये उसके फल से इस निर्जन नमें दुःख को प्राप्त भई, में पूर्वभव में किसीका अपवाद कीया परनिदा करीहोगी उसके पापकर यह कष्ट पाया तथा पूर्वभव में गुरों के समीप व्रत लेकर भग्न कीये उसका यह फल पाया अथवा विषफल समान जो दुर्वचन तिनकर किसीका अपमान कीया उससे यह फल पाये अथवा में परभवमें कमलों के वन में तिष्ठताचकवा चकवीका युगल विछोड़ा इसलिये मुझे स्वामी का वियोग भया अथवा में परभव में कुचेष्टा कर हंस हंसनी का युगल विछोड़ा जे कमलों कर मण्डित सरोवर में निवास करणारे और बड़े बड़े पुरुषोंको जिनकी चालकी उपमा दोजे और जिनके वचन अति सुन्दर जिनके चरण चोंच लोचन कमल समान अरुण सो मैं विछोडे उनके दोषकरऐसी दुःख अवस्था को प्राप्त भई अथवा में पापिनी कबूतर
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