Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पगा
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जिस सम्यकदर्शन कर भव्यजीव संसारसे मुक्त होवे हैं सो तुम्हारे पाराधिवे योग्यहै तुम राजास सम्यक दर्शनको विशेषभला जानियो वह राज्य तो बिनाशीक हैं और सम्यक दर्शन अविनाशी सुखका दाताहै यदि अभव्य नीव निन्दा करें तो, उनकी निन्दाके भयसे हे पुरुषोत्तम सम्यक्दर्शनको कदाचित न तजना यह अत्यन्त दुर्लभहै जैसे हाथमें पाया रत्न समुद्र विषे डालिये तो फिर कौन उपायसे हाथ आवे। और अमृत फल अंधकृपा डारा फिर कैसे मिले जैसे अमृतफलको डाल बालकपश्चातापकरेतैसेसम्यक्दर्शनसे रहितहुवा जीव विषादकरे है यह जगतदुर्निवार है जगतकामुख बंद करवेको कौन समर्थ जिसकेमुखमें जो आसोहीकहेइसलियेजगतकीवातसुनकरजो योग्यहोयसोकरियोलोकगडलिकाप्रवाहसोअपने हृदय में हे गुणभूषमा लौकिक बार्ता न धरणी और दानसे प्रीतिके योगकर जनोंको प्रसन्न राखना और बिमल स्वभावकर मित्रोंको वश करना और साधु तथा आर्यिका आहारको जावें तिनकोप्राशुक अन्नसे अतिभक्ति कर निरंतर आहार देना और चतुर्विध संघकी सेवा करनी मन बचन कायकर मुनोंकी प्रणाम पूजन अर्चनादिकर शुभ कर्म उपार्जन करना और क्रोधको क्षमाकर मानको निगर्वताकर मायाको निष्कपटता कर लोभको संतोष कर जतिना श्राप सर्व शास्त्रविषे प्राणहो सो हम तुमको उपदेश देने को समर्थ नहीं क्योंकि हम स्त्रीजनहें श्रापकी कृपा के योगसे कभी कोई परिहास्यकर अविनय भरा बचन कहो हो तो क्षमा करियो ऐसा कहकररथसे उतरी और तृणपाषाणकर भरी जो पृथ्वी उसमें अचेतहोय मूछ खाय पड़ी सो जानकी भूमि में पड़ी ऐसी सोहती भई मानों रत्नोंकी राशिही पड़ी है कृतांतबक नीताको चेष्टाहित मूर्छित देख महादुखीभया और चित्तमें चितनताभया हाय यह महा भयानक वन
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