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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पगा 1280 जिस सम्यकदर्शन कर भव्यजीव संसारसे मुक्त होवे हैं सो तुम्हारे पाराधिवे योग्यहै तुम राजास सम्यक दर्शनको विशेषभला जानियो वह राज्य तो बिनाशीक हैं और सम्यक दर्शन अविनाशी सुखका दाताहै यदि अभव्य नीव निन्दा करें तो, उनकी निन्दाके भयसे हे पुरुषोत्तम सम्यक्दर्शनको कदाचित न तजना यह अत्यन्त दुर्लभहै जैसे हाथमें पाया रत्न समुद्र विषे डालिये तो फिर कौन उपायसे हाथ आवे। और अमृत फल अंधकृपा डारा फिर कैसे मिले जैसे अमृतफलको डाल बालकपश्चातापकरेतैसेसम्यक्दर्शनसे रहितहुवा जीव विषादकरे है यह जगतदुर्निवार है जगतकामुख बंद करवेको कौन समर्थ जिसकेमुखमें जो आसोहीकहेइसलियेजगतकीवातसुनकरजो योग्यहोयसोकरियोलोकगडलिकाप्रवाहसोअपने हृदय में हे गुणभूषमा लौकिक बार्ता न धरणी और दानसे प्रीतिके योगकर जनोंको प्रसन्न राखना और बिमल स्वभावकर मित्रोंको वश करना और साधु तथा आर्यिका आहारको जावें तिनकोप्राशुक अन्नसे अतिभक्ति कर निरंतर आहार देना और चतुर्विध संघकी सेवा करनी मन बचन कायकर मुनोंकी प्रणाम पूजन अर्चनादिकर शुभ कर्म उपार्जन करना और क्रोधको क्षमाकर मानको निगर्वताकर मायाको निष्कपटता कर लोभको संतोष कर जतिना श्राप सर्व शास्त्रविषे प्राणहो सो हम तुमको उपदेश देने को समर्थ नहीं क्योंकि हम स्त्रीजनहें श्रापकी कृपा के योगसे कभी कोई परिहास्यकर अविनय भरा बचन कहो हो तो क्षमा करियो ऐसा कहकररथसे उतरी और तृणपाषाणकर भरी जो पृथ्वी उसमें अचेतहोय मूछ खाय पड़ी सो जानकी भूमि में पड़ी ऐसी सोहती भई मानों रत्नोंकी राशिही पड़ी है कृतांतबक नीताको चेष्टाहित मूर्छित देख महादुखीभया और चित्तमें चितनताभया हाय यह महा भयानक वन For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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