Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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और करकस डोभकी अणी और कांकरान से भरी पृथिवी इस में कैसे शयन करूंगी ऐसी अवस्था भा। पायकर जो मेरे प्राण न जाय तो ये प्राणही वज्र के हैं अहो ऐसी सवस्था पायकर मेरे हृदय के सौ टूक न होय हैं सो यह वज्रका हृदय है क्या करूं कहां जाऊं कौन से क्या कहूं कौन के आश्रय तिष्ठं हाय गुणसमुद्र राम मुझे क्यों तजी, हे महा भक्त लक्षमणमेरी क्यों न सहायकरी हाय पिता जनक हाय माता विदेहा यह क्या भया अहो विद्याधरोंके स्वामी भामण्डल में दुख के भवन में पड़ी कैसे तिष्ठू में ऐसी पापिनी जो मो सहित पति ने परम संपदा कर जिनेन्द्रका दर्शन अर्चन चितया था सो मुझे इस बनी में डारी । हे श्रेणिक इस भांति सीता सती विलाप करे है और राजा वज्रजंघ पुण्डरीक पुरका स्वामी हाथी पकड़वे निमित्तवन में प्रायोथा सो हाथी पकड़ बड़ी विभूति से पीछे जायथा सो उसकी सेनाके प्यादे शूरवीर कटारी
आदि नानाप्रकारके शस्त्र धरे कमर बांधे पाय निकसे सो इसके रुदन के मनोहर शब्द सुनकर शंशयको । और भयको प्राप्त भये एक पैंडभा न जायसके, और तुरंगों के सवार भी उसका रुदन सुन खड़े होय रहे उनको यह अशंका उपजी कि इस वन में अनेक दुष्ट जीव वहां यह सुन्दर स्त्री के रुदनका नाद कहां होय हैमृग सुसा रोक सांप रीछ ल्याली बघेरा पारणे भैंसे चीता गैंडा शादल अष्टापद वन शकर गज तिनकर । विकराल यहबन उस विषे यह चन्द्रकला समान महामनोग्य कौन रोवे है यह कोई देवांगना सौधर्म । स्वर्गसे पृथिवी में आई है यह विचारकर सेना के लोक आश्चर्य को प्राप्त होय खंड रहे और वहसेना । समुद्र समान जिसमें तुरंगही मगर और पयादे मीन और हाथी ग्राह हैं समुद्रभीगाजे और सेनाभी गाजे है और समुद्र में लहर उठे हैं शेनामें सूर्य की किरण कर शस्त्रोंकी जोतउठे है समुद्र भी भयंकर
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