Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥५४६॥
|| से कही हे पुरुषोत्तम मेरी पुत्री का तुम पाणिग्रहणाकया चाहो हो तो करो लक्षमणने कही मे रेबडे भाई पुराण
और भावज नगर के निकट तिष्ठे हैं तिनको पुछो उनकी आज्ञा होय सो तुमको हमको करनी उचित है वे सर्व नीके जाने हैं तब राजा पुत्री को और लक्षमण को स्थमें चढाय सर्व कुटुम्ब सहित रघुबीर पे चला, सो क्षोभ को प्राप्त हुआ जो समुद्र उसकी गर्जना समान इस की सेना का शब्दसुन कर और धूल के पटल उठते देख कर सीताभयभीत होय कहतीभई हे नाथलक्षमणने कुछ उद्धत चेष्ठा करी जिससे इस दिशामें उपद्रव दृष्टि आवे है इसलिये सावधान होय जो कुछ करणा होय सो करो, तब श्राप जानकी को उर से लगाय कहते भए हेदेवी भय मत करों ऐसा कह कर उठे धनुषु उपर दृष्टि धरी तवही मनुष्यों के समूह के आगे स्त्रीजन सुन्दर गान करती देखी फिर निकट ही आई सुन्दर है अंग जिनके स्त्रियों को गावती और नृत्य करती देख श्रीराम कोविश्वास उपजा सीता सहित सुख से विराज स्त्रीजन सर्व आभूषण मंडित अति मनोहर मंगल द्रव्य हाथ में लिये हर्ष के भरे हैं नेत्र जिनके रथ से उतर कर आई और राजा शत्रु दमन भी बहुत कुटुम्ब सहित श्रीररम के चरणारविन्द को नमस्कार कर बहुतविनयसे बैठा लक्षमण और जितपद्मा एक रथ में बैठे आए थे सो उतर कर लक्षमण श्रीरामचन्द्र को और जानकी को सीस निवाय प्रणाम कर महा विनयवान दूर बैठा सो श्रीराम राजा शत्रुदमनसे कुशल प्रश्न वार्ता कर सुख से बिराजे राम के आगमन से राजा ने हर्षित होय नृत्य किया महा भक्ति से नगर में चलने की विनती करी,श्रीराम और सीता और लक्षमण एक रथ में विराजेपरम उत्साह से राजाके महल में पधारे मानों वह राजमन्दिर सरोवर ही है स्त्री रूप कमलों से भरा लावण्यरूप जल है जिसमें और शब्द करते
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