Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पदा
'८२७॥
मुवा , तैसे यह विषियाभिलाषी भवसमुद्र में ड्वे हैं यह लोक मींडक समान मोह रूप कीच में मग्न पुराण । लोभरूप सर्प के ग्रसे नरक में पड़े हैं ऐसे चितवन करते शांतचित्त भरत को कैयकदिवसप्रति विरस से
बीते जैसे सिंह मही समर्थ पांजरे में पड़ा खेदखिन्न रहे, उसके बन में जायबे की इच्छा तैसे भरत महा राज के महाव्रत धारिखे की इच्छा, सो घर में सदा उदास ही रहे महाबत सर्व दुःख का नाशक, एक दिवस वह शांतचित्त घर तजिवे को उद्यमी भया तब केकई के कहे से राम लक्ष्मणने थांभा, और महा स्नेह कर कहते भए हे भाई पिता वैराग्यको प्राप्तभए तब तुझे पृथिवी का राज्यदिया सिंहासन पर बैठाया सो तू हमारा सर्व रघुवंशियों का स्वामी है, लोक का पालन कर यह सुदर्शनचक्र यह देव और विद्याधर तेरी याज्ञा में हैं इस धरा को नारी समान भोग में तेरे सिर पर चन्द्रमा समान उज्वल छत्र लिये खड़ा रई.
और भाई शत्रुघन चमर ढारे और लक्ष्मण सा सुंदर तेरे मंत्री और तृ हमारा वचन न मानेगा तोमें फिर विदेश उठ जाऊंगा मृगों की न्याई वन उपवन में रहूंगा, मैं तो राक्ष का तिलक जो रावण उसे जीत तेरे दर्शनके अर्थ पाया अब त निःकंटकराज्य कर पीछे तेरे साथ में भी मुनिग्रत आदरूंगा इसभांति महा शुभचित्त श्रीराम भाई भरत से कहते भए, तब भरत महानिस्पृह विषय रूप विषसेअतिविरक्तकहता भया हे देव में राज्य संपदा तुरत ही तजा चाहूं हूं जिसको तज कर शुरवीर पुरुष मोक्ष प्राप्त भए हे नरेन्द्र अर्थ काम महा दुःख के कारण जीवों के शत्रु महापुरुषों कर निन्द्य हैं तिनको मढ़ जन सेवें हैं, हे हलायुध यह क्षणभंगुर भोग तिन में मेरी तृष्णा नहीं यद्यपि स्वर्ग लोक समान भोग तुम्हारे प्रसाद कर अपने घर में हैं तथापि मुझे रुचि नहीं यह संसार सागर महा भयानक है जहां मृत्य रूप पातालकुण्ड।
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