Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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आत्मा ही साक्षी है पर जीवोंका प्रयोजन नहीं नीच जनों के अपवादसे पण्डित विवेकी कोध कोन प्राप्त होवें जैसे स्वानों के भौंकने से गजेन्द्र नहीं कोप करे हैं ये लोक विचित्रगति तरंग समान है चेप्य जिनकी परदोष कथवे में आसक्त सो इन दुष्टों का स्वयमेवही निग्रह होयगा जैसे कोई अज्ञानी शिला को उपाड कर चन्द्रमा की ओर वगाय उसे मारा चाहे सो सहज ही आप निस्सन्देह नाशको प्राप्तहोय है जो दुष्ट पराये गुणोंको न सहसकें और सदा पराई निंदाकरें हैं, सो पाप कर्मी निश्चय सेती दुर्गती को प्राप्त होयहैं, जब ऐसे वचन लक्ष्मणने कहे तब श्रीरामचन्द्र कहते भए हे लक्षमण तू कहे है सो सब सत्य है तेरी बुद्धिरागद्वेष रहित अति मध्यस्थ महाशोभायमान है, परन्तु जे शुद्ध न्याय मार्गी मनुष्य हैं वे लोक विरुद्ध कार्य को तजे हैं जिसकी दशोंदिशा में अकीर्ति रूप दावानला की ज्वाला प्रज्वलित है उसको जगत् में क्या सुख और क्या उसका जीतव्य अनर्थ का करणहारा जो अर्थ उसकर क्या और विषकर संयुक्त जो औषधि उसकर क्या और जो बलवान होय जीवों की रक्षा न करे शरणागत. पालकन होय उसके बलकर क्या और जिसकर प्रात्मकल्याण न होय उस अाचरणकर क्यों चारित्र सोई जो प्रात्म हित करे और जो अध्यात्मगोचर प्रात्मा को न जाने उसके ज्ञानकर क्या और जिसकी कीर्ति रूपवधु अपवाद रूप वलवान हरे उसका जन्म प्रशस्त नहीं ऐसे जीवने से मरण भला लोकापवाद की वाततों दूर ही रहो मुझे यह महा दोष है जो पर पुरुष ने हरी सीता में फिर घर में लाया राक्षस के भवन में उद्यान वहां यह बहुत दिन रही और उसने दूती पठाय मनवांछित प्रार्थना करी और समीप आय दुष्ट दृष्टिकर देखी और मनमें आये सो वचन कहे ऐसी सीता में घर में ल्याया इस समान और लज्जा क्या ।
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