Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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प्रराब ॥८८८ः।
पद्य की भरी सिरके वाल बखेरे रुदन करती भई इत्यादि अनेक अपशकुन भए तो पणिसीता जिन भाक्तिमें
अनुरागिणी निश्चलचित्त चली गई अपशकुन न गिने पहाड़ोंके शिखर कंदरा अनेक बन उपबन उलंघ कर शीघूही रथ दूर गया गरुडसमान बेग जिनका ऐसे अश्वोंकर युक्त सुफेद ध्वजाकर विराजित सूर्य के रथ समान रथ शीघ्र चला मनोरथ समान वह रथ तापर चढी रामकी राणी इन्द्रार्णासमान सो प्रति सोहती भई कृतान्तवक्र सारथीने मार्ग में सीताको नाना प्रकारकी भूमि दिखाई ग्राम नगर बन और कमल से फल रहे हैं सरोवर नानाप्रकार के पुष्प नानाप्रकार के वृक्ष कईएक सघन वृक्षोंकर बन अन्धकार रूप है । जैसे अन्धेरी रात्रि मेघमालाकर मण्डित महा अन्धकार रूप भासे कछ नजर न आवे कईएक विरले बृच हे सघनता नहीं वहां कैसी भासे है जैसी पंचमकालमें भरत ऐरावत क्षेत्रोंकी पृथिवी विरले सत्पुरुषों कर सोहे और कछुक बनी पतझड़ होयगई है सो पात्ररहित पुष्प कलादि रहितहें छाया रहित कैसी दीखे जैसे बड़े कुलकी स्त्री विधवा । भावार्थ--विधवाभी पत्र रूपी पुष्प फलादि रहित हैं और आभरण तथा
सुन्दर वस्त्रादि रहित और कान्ति रहित हैं शोभा रहित हैं तैसी वनी दीखे है और कई एक बन में सुन्दर । माधुरी लता ग्राम के वृक्ष से लगी ऐसी सोहे हैं जैसी चपल बेरा ग्राम से लगी अशोक की वांच्छा | करे है और कैयक दावानल कर बृक्ष जर गये हैं सो नहीं सोहे हैं जैसे हृदय क्रोघरूप दावानल कर जरा
न सोहे और कहीं एक सुन्दर पल्लवोंके समूह मन्द पवनकर हालते सोहे हैं मानो बसन्तराजके प्रायवेकरवन पंक्ति रूप नारी प्रानन्दसे नृतही करे है और कहीं एकभीलों के समूह तिनके जे कलकलाट शब्दकर मगदूर भागगए हैं और पक्षी उड़गये हैं और कहीं एक बनी अल्प है जल जिनमें ऐसी नदी तिनकर
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