Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराम
८८
पद्म विदा होयगा आप कौन पर कोप भए हैं, अाज कोई का कछ विगोड़ है। ज्येष्ठ के सूर्य समान, | ज्योति जिस की काल समान भयंकर शस्त्रों के समूह के मध्य चला जाय है सो आज न जानिये
कौन पर कोपा है, इस भांति नगर के नर नारी बात करे हैं और सेनापति राम देव के समीप आया स्वामो को सीस निवाय नमस्कार कर कहता भया । हे देव जो अाज्ञा होय सो ही करूं तब रामने कही, शीघही सीताको ले जावो और मार्गविषे जिनमंदिरोंका दर्शन कराय समेद शिखर
और निर्वाण भूमि तथा मार्गके चेत्यालय वहां दर्शन कराय इसकी आशा पूर्णकर और सिंहनादनामा अंटवी जहां मनुष्यका नाम नहीं वहां अकेली मेल उठ श्रावो तब उसने कही जो प्राज्ञा होयगी सोही होयगी कवितर्क न करी और जानकीपैजाय कही हे माता उठो रथमें चढो चैत्यालयोंके दर्शनकी बांछा है सो करो इसभांति सेनापतिने मधुरस्वरकर हर्ष उपजाया तब सीता रथचढ़ी, चढते समय भगवान को नमस्कार किया और यह शब्द कहा जो चतुर्विध संघ जयवन्त होवे श्रीरामचन्द्र महाजिनधर्मी उत्तम प्रा. चरण विषे तत्पर सो जयवन्त होवे और मेरे प्रमादसे अमुन्दर चेष्टाई होवे सो जिनधर्मके अधिष्ठाता। देव क्षमा करो और सखी जन लार भई तिनसे कही तुम सुखसे तिष्ठो में शीघ्रही जिन चेत्यालयों के दर्शनकर श्राऊ हूं इसभांति तिनसे कह और सिद्धोंको नमस्कारकर सीता आनन्दसे रथ चढी सो रत्न स्वर्णका रथ उसपर चढी ऐसी सोहती भई जैसी बिमान चढ़ी देवांगना सोहे, वह रथ कृतांतबक्रने चलाया सो ऐसाशीघ चलायाजैसा भरत चक्रवर्तीकाचलाया बाणचले सो चलते समय सीताको अपशकुन भय सके वृक्षपर काग बैठा बिरस शब्द करता भया और माथा धुनताभया और सन्मुख स्त्री महाशोक
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