Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
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से चयकर अचलकुमार का जीव राजा दशरथ के यह शत्रुघन पुत्रभया अनेक भव के सम्बन्ध से इसकी मथुरा से अधिक प्रीति भई गौतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वृक्ष की छाया जो प्राणी बैठा होयतो उस वृक्ष से प्रीति होय है जहां अनेक भव घरे वहां की क्या बात संसारी जीवों की ऐसी अवस्था है और वह आपका जीव स्वर्ग से चयकर कृतांतबक सेनापति भया इसभांति धर्मके प्रसादसेये दोनों मिश्र संपदा को प्राप्त भये रजे धर्मसे रहित हैं तिनके कभी भी सुख नहीं अनेक भवके उपार्जे दुखरूप मल तिनके धोयवेको धर्मका सेबन ही योग्य है और जल के तीर्थों में मनका मैल नहीं धुवे धर्म के प्रसाद से शत्रुघन का जीव सुखी भया ऐसा जान कर विवेकी जीवधर्म विषे उद्यमी होवोधर्म को सुन कर जिन की श्रात्मकल्याण में प्रीति नहीं होय है तिनका श्रवण वृथा है जैसे जो नेत्रवान सूर्यके उदयमें कूपमें पड़े तो उसके नेत्र वृथा हैं । इति इक्यासपर्वसंपूर्णम् ॥
अथानन्तर आकाश में गमन करण हारे सप्तचारण ऋषि सप्त सूर्य समान है कांति जिनकी सो विहार करते निर्बं मुनींद्र मथुरापुरी थाये तिनके नाम सुरमन्यु श्रीमन्यु श्रीनिश्चय सर्वसुन्दर जय air बिनयलाल सजयमित्र ये सर्व ही महाचारित्र के पात्र अति सुन्दर राजा श्री नन्दनराणी धरणी सुन्दरी के पुत्र पृथिवी में प्रसिद्ध पिता सहित प्रीतंकर स्वामी का केवल ज्ञान देख प्रतिबोध को प्राप्त भयेथे पिता और प्रीतंकर केवली के निकट मुनि भये और एक महीने का वास्तक तु वरुनामा पुत्र उस को राज्य दीया पिता श्रीनन्दनतो केवली भया और ये सातों महामुनि चारण ऋद्धि यादि अनेक ऋद्धि के धारक श्रुतकेवली भये सो चातुर्मासिकमें मथुराके वनमें बदके वृक्ष तले आय बिराजे तिन के तपके
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