Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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अतिश्रादरसे इनको नमस्कार किया और जे द्युतिभट्टारकके शिष्यथे तिन सबने नमस्कार किया फिर ये सप्त तो जिन वन्दनाकर अाकाश के मार्ग पीछे मथुरा गये इनके गये पीछे अहंदत्त सेठ चैत्यालय में
आया तब द्युतिभट्टारकन कही सप्तर्षिमहा योगीश्वरचारगा मुनि यहां आये थे तुमनेभीवह बंदे हैं वे महा पुरुष महातप के धारक हैं चार महीना मथुरा निवास किया है और चाहे जहां श्राहार लेजांय श्राज अयोध्यामें आहार लिया चैत्यालय दर्शन कर गये हमसे धर्मचर्चा करी वे महा तपोधन गंगनगामी शुभ चेष्टा के धरणहारे परम उदार वे मुनि बन्दिवे योग्य हैं तब वह श्रावकों में अग्रणी प्राचार्य के मुख से चारण सुनों की महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताव करता मया धिक्कार मुझे में सम्यक
रहित बस्तु का स्वरूप न पिकाना मैं अत्याचारी मिथ्या हाष्टिमो समान और अधर्मी कौन वे महा मुनि मेरे मंदिर आहारको आये और मैं नवधा भक्तिकर आहारन दिया जो साधु को सन्मान न करें और भक्तिकर अन्न जल न देय सो मिथ्याष्टिहें मैं पापी पापात्मा पापका भाजन महा. निन्द्य मोसमान और अज्ञानी कौन में जिनवाणी से विमुख अव में जौलग उनका दर्शन न करूं तौलग.. मेरे मनका दाह न मिदे, चारण मुनों की तो यही रीती है चौमोसे निबास तो एक स्थान करें और आहार अनेक नगरों में कर अावें चारण ऋधिक प्रभाव कर उनके अंग से जीवों को बाधा न होय ॥ __ अथानन्तर कार्तिक की पूनो नजीक जान सेट अर्हदत्त महासम्यक्दृष्टि नृपतुल्य विभूति जिस के अयोध्या से मथुग को सर्वकुटम्ब सहित सप्त ऋषि के पजन निमिस चला, जाना है मुनों का माहात्म्य | जिसने और अपनी बारम्बार निन्दाकरे है रथ हाथी पियादे तुरंगों के असवार इत्यादि बड़ीसेना सहित
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