Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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1८४१॥
। है, तब यह प्रांस डार कहता भया हे मात तू रुदन तज वह मैं ही हूं तुझे देखे बहुत दिन भए इसलिये पद मुझे नहीं पहिचाने है तू विश्वास गह में तेरा पुत्र हूं तब वह पुत्र जान राखती भई, और मोह के योग
से उसके स्तनों से दुग्ध झरा, यह मृदुमति तेजस्वी रूपवान् स्त्रीयों के मन का हरणहारा धूर्तों का शिरोमणि जुवा में सदाजीते बहुतचतुर अनेककला जाने कामभोग में आसक्त, एक वसंतमाला नामा वेश्या सो उसके अति बल्लभ और इसके माता पिता ने यह काढा था सोइसके पीछे वे अतिलक्ष्मीकोप्राप्त भए पिता कुण्डलादिक अनेक भूषण कर मण्डित और माता कांचीदामादिक अनेक अाभरणों कर शोभित सुख से तिष्ठे और एक दिन यह मृदमति संसाक नगर में राजमंदिर में चोरी को गया सो राजा नन्दीवर्धन शशंकमुख स्वामी के मुखधर्मोपदेश सुन विरक्तचित्त भया था सो अपनी राणी से कहे था कि हे देवी में मोक्ष सुखका देनहारा मुनि के मुख परम धर्म सुना, ऐ इन्द्रियों के विषय विषसमान दारुण हैं इनके फल नरक निगोद में सो मैं जिनेश्वरी दीक्षा धरूंगा तुम शोक मत करियो. इसभांति स्त्रीको शिक्षा देता था सो मृदुमति चोरने यह वचन सुन अपने मनमें विचारी देखो यह राजऋद्धि तज मुनिव्रत धारे है
और में पापी चोरी कर पराया द्रव्य हरूं हूं, धिक्कार मोको ऐसे विचार कर निर्मलचित्त होय सांसारिक विषय भोगों से उदासचित्त भया स्वामी चन्द्रमुख के समीप सर्व परिग्रह का त्यागकर जिनदीक्षा प्रादरी शास्त्रोक्त महादुर्धर तप करतो महाक्षमावान् महापाशुक आहार लेता भयो । ____ अथानन्तर दुर्गनाम गिरि के शिखर एक गुणनिधि नाम मुनि चार महीने के उपवास धर तिष्ठे थे वे सुर असुर मनुष्यों कर स्तुति करिवे योग्य महारद्धि धारी चारणमुनि थे सो चौमासे का नियम |
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