Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
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देती सो शत्रुघ्न माथे चढ़ाय माताको प्रणामकर वाहिर निकसा स्वर्णकी सांकलोंकर मंडित जो गज ८५३॥उस पर चढ़ा ऐसा साहता भया जैसे मेघमाला ऊपर चन्द्रमा सोहे और नाना प्रकार के वाहनों पर
आरूढ़ अनेक राजा सँग चले सो तिन कर ऐसा सोहता भया जैसा देवों कर मण्डि देवेंद्र सोहे, राम लक्ष्मण को भाई से अधिक प्रीति सो तीन मंज्जिल भाई के संग गये, तब भाई कहता भया । हे पज्य पुरुषोत्तम पीछे अयोध्या जावो मेरी चिन्ता न करो मैं आप के प्रसाद से शत्रुवों को निस्सन्देह जीतूंगा तब लक्ष्मण ने समुद्रावर्तनामा धनुष दिया प्रज्वलित हैं मुख जिन के पवन सारिखे वेग को घरे ऐसे वाण दिये और कृतान्तवक्रको लारदिया और लक्ष्मण सहित रामपीछे अयोध्या याये परन्तुभाईकी चिन्ताविशेष ||
पुरा
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प्रथानन्तर शत्रुघ्न महाघीर बीर बड़ी सेना कर संयुक्त मथुरा की तरफ गया अनुक्रम से यमुना नदी के तीर जाय डेरे दिये जहां मन्त्री महासूक्ष्मबुद्धि मन्त्र करते भये देखो, इस बालक शत्रुध्न की बुद्धि जो मधु के जीत की बांबा करी है । यह नयवर्जित केवल अभिमान कर प्रदर्ता है, जिस मधुने पूर्व राजा मान्धाता रामें जीता सो मधु देवोंकर विद्याधरोंसे न जाता जाय, उसे यह कंस जातेगा राजा मधु सागर समान है उछलते पियारे वेई भये उतंग लहर और शत्रुवों के समूह वेई भये ग्राह तिनकर पूर्ण ऐसे मधुसमुद्र शत्रुघ्नको भुजावोंकर तिरा चाहे है सो कैसे तिरेगा, तथा मधुभूपति भयानक न समान है उस विषे प्रवेशकर कौन जीवता निसरे कैसा है राजा मधु रूप बन पयादोंके समूह वेई वृच जहां और माते हाथियोंकर महाभयंकर और घोड़ों के समूह वेई हैं मृग जहां, ये बचन मंत्रियों के सुन कृतांतवक कहता भया । तुम साहस छोड़ ऐसे कायरता के वचन क्यों कहो हो यद्यपि वह राजा
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