Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण भये और शत्रघ्न की माता सुप्रभा भगवान् की अद्भुत पूजा करावती भई, और दुखी जीवों को करुणा
कर और धर्मात्मा जीवों का अति विलय कर अनेक प्रकार दान देती भई, यद्यपी अयोध्या महा सुन्द्र है स्वर्ण रत्नों के मन्दिीरों कर मण्डित है कामधेनुसमान सर्व कामनापूरणहारीदेवपुरी समान पुरी है तथापि शत्रुघ्न का जीव मथुरा से अतिआसक्त सो अयोध्या में अनुरागी न होता भया जैसे कैयक । दिन सीता विना राम उदा रहे. तैसे शत्रुघ्न मथुरा बिना अयोध्या में उदास रहे जीवों को सुन्दर वस्तु का संयोग स्वप्न समान क्षणभंगुरहेपरम दाहको उपजावे है ज्येष्ठके सूर्यसे भी अधिक आतापकारी है। इति वा पर्व
अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी से पूछता भया हे भगवान कोन कारण कर शत्रुघ्न मयुरा ही को याचता भया अयोध्या से उसे मथुरा का निवास अधिक क्यों रुचा, अनेक राजधानी स्वर्ग लोक समान सो न बांछी और मथुरा ही बांछी असी मथुरा से क्यों प्रीति, तव गौतमस्याम ज्ञान के समुद्र सकल सभारूप नक्षत्रों के चन्द्रमा कहते भये, हे श्रेणिक इस शत्रुघन के अनेक भव मथुरा में भये इसालय । इस को मधु-पुरी से अधिक स्नेह भया। यह जीव कर्मों के सम्बन्ध से अनादि काल का संसार में बसे है सो अनन्त भव घरे यह शत्रुघन का जीव अनन्त भव भ्रमण कर मथुरा विषे एक यमनदेव नामा मनुष्य भया महकर धर्म से विमुख सो मर कर शूकर खर काग ये जन्म घर अजा पुत्र भया सो अग्नि में जल मूवा, भैंसा जलके लाद ने का भया सो छैचार भैंसा होय दुख से मूवा नीचकुल विनिर्धन मनुष्य भया, हे श्रेणिक महापापी तो नरक को प्राप्त होय हैं, ओर पुण्यवान जाव स्वर्ग विषे देव होय हैं और शुभाशुभ मिश्रित कर मनुष्य होय हैं फिर यह कुलन्धरनामा ब्राह्मण भया रूपवान औरशीलरहित सोएक
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