Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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५.
पराण
१८५८
लगी उससमयतलाव खुदवाना कोन अर्थ और सर्पने डसा उस समय देशान्तर से मन्त्राधीसवुलवाना और । दूरदेशसे मणिपोषधी मंगावनाकोन अर्थ इसलिये अबसर्वचिंता तज निराकुलहोय अपनामनसमाधान में ल्याऊं यहविचार वह धीरवीरघावकर पूर्णहाथी चढाही भावमुनि होताभया,अरहन्तसिद्ध प्राचार्यउपाध्याय साधवों को मनकरवचनकर कायकरबारंबार नमस्कार कर और अरहंत सिद्ध साध तथा केवली प्रणीत धर्म यहाँ मंगल हैं यही उत्तम हैं इन ही कामेरे शरणहै अढाईद्वीप विषे पन्द्रहकम भूमि तिनविषे भगवान् अरहन्त देव होय हैं वे त्रलोक्यनाथ मेरे हृदय में तिष्ठो में बारम्बार नमस्कार करूं हूं अब में यावज्जीव सर्व पाप योग तजे चारों श्राहार तजे, जे पूर्व पाप उपार्जे थे तिन की निन्दा करूंहूं और सकल वस्तु का प्रत्याख्यान करूं हूं अनादि काल से इस संसार बन में जो कर्म उपार्जे थे मेरे दुःखकृत मिथ्या होवो॥
. भावार्थ-मुझे फल मत देवें, अब में तत्वज्ञान में तिष्ठा तजवे योग्य जो रागादिक तिन को त हूँ और लेयवे योग्य जो निजभाव तिनको लेऊहूं ज्ञान दर्शन मेरे स्वभावही हैं सो मोसे अभेद्य हें और जे शरीरादिक समस्त पर पदार्थ कर्म के संयोग कर उपजे वे मोसे न्यारे हैं देह त्याग के समय संसारी लोक भूमि का तथा तृण कासांथरा करे हैं सो सांथरा नहीं यह जीव ही पाप बुद्धि रहित होय तब अपना श्राप ही सांथरा है ऐसा विचारकर राजा मधु ने दोनों प्रकारके परिग्रह भावोंसे तजे और हाथी की पीठ पर बैठा ही सिर के केश लोंच करताभया, शरीर घावों कर अतिव्याप्त है तथापि महा दुर्धरधीर्य को धरकर अध्यात्म योग में प्रारूढ होय कोया का ममत्व तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जिसकी । तब शत्रुघ्न मधुकी परम शान्त दशा देख नमस्कार करता भया और कहताभया हे साधो मोअपराधी का अपराध क्षमाकरो, देवां
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