Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण
॥४२॥
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पूर्ण कर आकाश के मार्ग होय किसी तरफ चले गए, और यह मृदुमति मुनि आहार के निमित्त दुर्ग नामा गिरि के समीप लोक नामनगर वहां आहार को आया, जूडा प्रमाण भूमि को निरखता जाय था सो नगर के लोकों ने जानी यह वे ही मुनि हैं जो चार महीना गिरि के शिखर रहे यह जान कर यतिभक्ति कर पूजाकरी और इसे अति मनोहर आहार दिया नगर के लोकोंने बहुत स्तुति करी इसने जानी गिरिपर चार महीना रहे तिनके भरोसे मेरी अधिक प्रशंसा होय है सो मान का भरा मौन पकड़ रहा, लोकों से यह न कही कि मैं और ही हूं और वे मुनि और थे, और गुरु के निकट मायाशल्य दूर न करी, प्रायश्चित न लिया इसलिये तिर्यंचगति का कारणभया तप बहुत किये थे सो पर्याय पूरी कर
देव लोक जहां अभिराम का जीव देव भया था वहां ही यह गया पूर्वजन्म के स्नेहकर उसके इसके प्रतिस्नेह भया दोनों ही सामान ऋद्धि के घोरक अनेक देवांगनावों कर मंडित सुख के सागर में मग्न दोनों ही सागरों पर्यंत सुख से रमें सो अभिराम का जीव तो भरत भया और यह मृदुमति का जीव स्वर्ग से चय मायाचार के दोषसे इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उतंग हैं शिखर जिसके ऐसा जो निकुञ्ज नामा गिरि उसमें महा गहन शल्लकी नामा वन वहां मेघकी घटा समान श्याम अतिसुन्दर गजराज भया, समुद्र की गाज समान है गर्जना जिसकी और पवन समान है शीघ्र गमन जिसका महा भयंकर आकार को धरे, अति मदोन्मत्त चन्द्रमा समान उज्ज्वल हैं दांत जिसके, गजराजों के गुणों कर मंडित विजयादिक महा हस्ती तिनके व्रंस विषे उपजा महाकान्तिका घारक, रावत समान अतिस्वछंद सिंह व्याघ्रादिक को हननहारा महावृक्षों का उपरनहारा पर्वतों के शिखर का ढाहनहारा विद्याघरों कर न
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