Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥८४01
| सुखका कारण है यह जीवों का जीतव्य अत्यन्तचंचल इस विषे स्थिरता कहांजो अवांछिक निस्पृह पुराण चित्त हैं तिनके राज्य काज और इंद्रियों के भोगों से कौन कामइत्यादिक परमार्थक उपदेश रूपइस
को बाणी सुनकर स्त्री भी शांतचित्त भई नानाप्रकारके नियम धारती भई यह शीलवान तिनको भी शील विष दृढ़चित्त करताभया यह राजकुमार अपने शरीर विषे भी गगरहित एकांतरउपवास अथवा बेला तला आदि अनेक उपवासों कर कर्म कलंक खिपावता भया नानाप्रकारके तपकर शीरको शोखता भया जैसे ग्रीषमका सूर्य जलको शोखे समाधानरूप है मनजिसका मन इंद्रियों के जीतवे को समर्थ यह सम्यक दृष्टि निश्चलचित्त महाधीर बीर चौसठ हजार वर्षलग दुर्धर तपकरता भया फिर समावि मरण कर पंचनमोकार स्मण करता देहत्याग कर छठा जो ब्रह्मातरे स्वर्ग वहां महाऋद्ध का धारक देवभया
और जो भूषण के भवमें इसका पिता धनदत्त सेठथा विनोद ब्राह्मणका जीव सो मोह के योगसे अनेक कुयोनियों में भ्रमण कर जम्बू द्वीप भरत क्षेत्र वहां वादम नाम नगर उस विषे अग्निमुख नामा ब्राह्मण उसके शकुना नामा स्त्री मृदुमतिनामा पुत्रभया सो नामतो मृदुमति परन्तुकठोर चित्तप्रतिदुष्ट । सहाजवारी अविनयी अनेक अपराधों का भरा दुराचारी सो लोकों के उरोहने से माता पिता ने घर से निकासा सो पृथिवी में परिभ्रमण करता पोदनापुर गया, किसी के घर तृषातुर पानी पीवने को पैठा सो एक ब्राह्मणी ग्रांसू डारती हुई इसे शीतलजल प्यावती भई, यह शीतल मिष्टजलसे तृप्त हो ब्राह्मणी को । पूछता भया तू कौन कारण रुदन करे है तब उसने कही तेरे आकार एक मेरा पुत्र था सो में कठोरचित्तहोय । क्रोधकर घर से निकासा सो तेंने भ्रमण करते कहूं देखा होय तो कहो, नील कमल समान तो सारिखा ही।
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