Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म , संबोधी तब शोकरहितहोर प्रतिबोधको प्राप्तभई शुद्ध है मन जिसका अपने अज्ञान की बहुत निन्दा Sear करती भई, धिक्कार इस स्त्री पर्यायको यह पर्याय महादोषोंकी खानहै अत्यन्त अशुचि वीमत्स नगर
की मोरी समान अब ऐसा उपाय करूं जिससे स्त्री पर्याय न घरूं,संसार समुद्रको तिरूं यह महा ज्ञान वान सदाही जिनशासनकी भक्तिवन्त थी अब महा वैगग्यको प्राप्त होय पृथ्वी मती आर्यिका के समीप आर्यका भई एक श्वंतवस्त्र धारा और सर्व परिग्रह तज निर्मलसम्यक्तको धरती सर्व प्रारम्भ टान्ती भई इसके साथ तीनसै आर्यकाभई यह विवेकी परिग्रह नजकर वारग्य धार ऐसी सोहती भई जैसी कलंक रहित चन्द्रमाकी कला मेघपटल रहित सोहे श्री देशभूषण केवली के बचनसुन अनेक मुनि भय अनेक आर्यिका भई तिन कर पृथ्वी ऐसी साहती भई जैसे कमलों कर सरोवरी सोहे और अनेक नर नारी पवित्र हैं चित्त जिनके तिन्होंने नाना प्रकारके नियम धर्म रूप श्राविकाके व्रत घारे, यह युक्त ही है कि सूर्य के प्रकाश कर नेत्रवान वस्तुका अवलोकन करे ही करे ॥ इति छियासीवां पर्व पूर्ण भया॥
अथानन्तरे त्रैलोक्यमण्डन हाथी अतिप्रशांतचित्त केवली के निकट श्रावक के व्रत घरता भया सम्यक् दर्शन संयुक्त महाज्ञानी शुभक्रिया में उद्यमी हाथी धर्म में तत्पर होता भया, पंद्रह पंद्रह दिन के उपवास तथा मासोपवास करता भया सके पत्रों कर पारणा करता भया हाथी संसार से भयभीत उत्तम चेष्टा में परायण लोकोंकर पूज्य महा विशुद्धताको धरे पृथिवी में विहार करता भया कभी पक्षोपवास कभी मासोपवास के पारणे ग्रामादिक में जाय तो श्रावक उसे अतिभक्तिसे शुद्ध अन्न शुद्धजल कर पारणा करवावते भए, क्षीण होय गया है शरीर जिसका वैराग्यरूप खूटे से बंधा महाउपतप करता भया ।
CALLIOJA
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