Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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1८३४०
ध्वनिमेंयहव्याख्यानभया कि अणुव्रतरूपश्रावककाधमौरमहाव्रतरूपयतिकाधर्म यह दोनों ही कल्याण के कारण हैं यतिका धर्म साक्षानिर्वाणकाकारण और श्रावककाधर्मपरम्पराय मोक्षका कारणहै ग्रहस्थका धम अल्पारम्भ अल्प परिग्रह को लीए कछु सुगमहैऔर यति का धर्म निरारम्भ निपरिग्रह अति कठिन महाशूर वीरों हीसे सधे है यह लोक अनादिनिधन जिसकी अादिअन्त नहीं इसमें यह प्राणी लोभकर मोहित नाना प्रकार कुयोनि में महादुःखको पावे हैं संसार का तारक धर्म ही है, यह धर्म नामा परम मित्र जीवों का महा हितु है जिस धर्म का मूल जीवदया की महिमा कहिये में नावे इसके प्रसादसे प्राणी मनवांछित सुख पावे हैं धर्मही पूज्य है जे धर्मका साधन करे वे ही पण्डित हैं यह दया मूल धर्म महाकल्याण को कारण जिनशासन विना अन्यत्र नहीं जो प्राणी जिनप्रणीत धर्म को लगें वे त्रैलोक्य के अग्र जो परम धाम है वहां प्राप्त भए यह जिनधर्म परम दुर्लभ है, इसधर्मका मुख्यफलतो मोक्षही है और गौण फल स्वर्ग में इन्द्रपद और पाताल में नागेन्द्रपद पृथिवी में चक्रवर्त्यादि नरेन्द्रपद यह फल है इसभान्ति केवलीनेधर्म का निरूपण कीया, तव प्रस्ताव पाय लक्षमण पूछते भए हे प्रभो त्रैलोक्यमण्डन हार्थी गजबंधन उपाड़ क्रोधको प्राप्त भया फिर तत्काल शान्त भाव को प्राप्त भया सो कौन कारण, तब केवलीदेशभूषण कहते भए, प्रथम तो यह लोकों की भीड़ देख मदोन्मत्तता थकी क्षोभ को प्राप्त भया फिर भरत को देख पूर्वभव चितार शान्तभाव को प्राप्त भयो चतुर्थ काल के श्रादि इस अयोध्या में नाभिराजा के मरु देवी के गर्भ में भगवान ऋषभ उपजे पूर्व भव में षोडश कारण भावना भाय त्रैलोक्य को आनन्द का कारण तीर्थंकर पद उपार्जे पृथिवी में प्रकट भए, इन्द्रादिक देवोंने जिनके गर्भ और जन्मकल्याणक कीए
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