Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पास 11८२८
हा काम है और जन्म रूप कल्लोल उठे हैं और राग द्वेषरूप नाना प्रकार के भयंकर जलचर हैं और रति अरति रूप क्षार जल कर पूर्ण हैं जहां शुभ अशुभ रूप चोर विचरे हैं सो मैं मुनिव्रत रूप जहाजमें बैठकर संसार समुद्रको तिरा चाहूं हूं हे राजेन्द्र में नानाप्रकार योनि विषे अनन्त काल जन्म मरण किए नरक निगोद विषे अनंत कष्ट सहे गर्भ बासादि विषे खेद खिन्नभया, यह बचन भरतके मुन बड़े २ राजा अांखोंसे प्रांसू डारते भए महाअाश्चर्यको प्राप्तहोय गदगद बाणी से कहते भए हे महाराज पिताका वचन पालो कैयक दिन राज्य करो और तुम इसराज्य लक्ष्मीको चंचल जान उदास भए हो तो कैयक दिन पीछे मुनि हूजियो अवार तो तुम्हारे बडे भाई आएहैं तिनको साता देवो तब भरत ने कही मैं तो पिताक बचनप्रमाण बहुत दिन राज्य संपदा भोगी प्रजाके दुःख हरे पुत्रकी न्याई प्रजा का पालन किया दान पूजा आदि गृहस्थके धर्म श्रादरे साधुवोंकी सेवा करो अब जो पिताने किया सो में किया चाहूं हूं अब तुम इस बस्तु के अनुमोदना क्यों न करो प्रशंसा योग्य वस्तु विषे कहां विबादहै, हे श्रीरामहेलक्षमण तुमने महाभयंकर युद्ध मेंशत्रुवोंको जीत अगल बलभद्रबासुदेवकीन्याई लचमी उपार्जी सो तुम्हारी लक्ष्मी और मनुष्यों कैसी नहीं तथापि राजलक्ष्मी मुझेन रुचे तृप्ति न करे जैसे मंगादि नदियों समुद्रको तृप्त न करे इस लिये मैं तत्वज्ञानके मार्ग विषे प्रवरतूंगा ऐसा कहकर अत्यन्त विरक्तहोय राम लक्ष्मणको बिना पूछेही वैराग्य को उठा जेसे आगे भरतचक्रवर्ती उठे। यह मनोहर चालका चलनहारा मुनिराजके निकट जायवेको उद्यमी भया तब अतिस्नेह कर लक्षमणने थांभा भरतका करपल्लव ग्रह लक्ष्मण खड़ा उसही समय माता केकई आंसू डारती आई और रामकी आज्ञासे दोनों भाइयोंकी राणी सबही ।
For Private and Personal Use Only