Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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अयोध्यापुरी के लोग भय कर कंपायमान भये और अन्य हाथीयों के महावत अपने अपने हाथी कोले
दूर भागे शोर त्रैलोक्यनंडन गिरि समान नगर का दरवाजा भंग कर जहां भरत पूजा करते थे वहां 1८३०
प्राण तब राम लकण की समस्त राणी भयकर कपायमान होय भरत के शरण आई, और हाथा भरत के नजीक ग्राला तब समस्त लोक हाहाकार करते भए और इसकी मातामहा विठ्ठल भई विलाप करता भई पुत्र के स्नेह विषे तत्पर महा शंकावान भई और राम लक्ष्मण गज बंधन विष प्रवीण गजके पकडने को उद्यमीभर गजराज महा प्रबल समान्यजनांसे देखा न जाय महाभयंकर शब्द करताप्रति तेजवान नाग फांसि कर भी रोका न जाय औरमहा शाभायमान कमल नयनभरत निर्भय स्त्रयों के श्राग तिनके बचायवे को खडे सो हाथी भरत को देख कर पूर्व भव चितार शांतचित्त भया अपनी सूण्ड शिथिल कर महा विनयवान भया भरत के आगे ऊभा भरत इसको मधुर वाणी कर कहते भये अहो गजत कौन कारण क्रोध को प्राप्त भया असे भरत के वचन सुन अत्यंत शांतचित्त निश्चल भया सौम्य है मुख जिसका ऊभा भरत की ओर देखे है भरत महाशरवीर शरणागत प्रतिपालक असे सोहें जैसे स्वर्ग विषे देव सोहें हाथी को जन्मान्तर का ज्ञान भया सो समस्त विकार से रहित होयगया दीर्घनिश्वास डारे हाथी मन में विचारे है यह भरत मेरा परममित्र है छठे स्वर्ग विषे हम दोनों एकत्र थे यह तो पुण्य के प्रसाद कर वहां से चयकर उत्तम पुरुप भया और मैंने कर्म के योग से तिर्यंच की योनि पाई कार्य अकार्य के विवेक से रहित महानिंद्य पशुका जन्म है में कौन योग से हाथी भया धिक्कार इस जन्म को अब वृथा | क्या शोच असा उपाय करूं जिससे प्रातमकल्याण होय और फिर संसार भ्रमण न करूंशोच कीए क्या ।
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