Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
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कार अति मुक्त कदंब सहकार चंपक पारिजात मंदार जिनकी सुगन्धता से भ्रमरों के समूहगुंजार करें हैं और मणि सुवर्णादिक के कमल तिन से पूजा करतेभए और दाल मृदंग ताल शंख इत्यादि अनेक वादिनों के नाद होते भए लंकापुर के निवासी बेर तज श्रानन्द रूप होय पाठ दिन में भगवान की प्रति महिमा से पूजा करते भए, जैसे नन्दीश्वर दीप में देव पूजा के उद्यमी होय तैसे लंका के लोक लंका में पूजा के उद्यमीभए और रावण विस्तीर्ण प्रतापका धारक श्री शांतिनाथ के || मंदिरमें जाय पवित्र होय भक्तिकर महामनोहर पूजा करताभया जैसे पहिले प्रतिवासुदेव करे, गौतम || गणधर कहे हैं हेश्रोणिक जे महाविभवकर युक्त भगवानके भक्त महाविभूतिवंत अतिमहिमासे प्रभुका !! पूजन करे हैं तिनके पुण्यके समूहका व्याख्यान कौन करसके वे उत्तम पुरुष देवगति के सुख भोग । फिर चक्रवर्तीयों के भोग पावें फिर राजतज जैनमतके व्रतधार महातप कर परम मुक्तिपावें कैसा है तप सूर्य से भी अधिक है तेज जिसका॥
॥ इति अड़सठवांपर्व सम्पूर्णम ॥ अथानन्तर महाशंतिका कारण श्रीशांतिनाथका मंदिर कैलाशके शिखर और शरदके मेघ समान उज्वल महा देदीप्य मान मंदिरोंकी पंक्तिसे मंडित जैसे जम्बूद्वीप के मध्य महाउतंगमुमेरु पर्वत सोहै तैसे रावण के मंदिरके मध्य जिनमंदिर सोहता भया वहां रावण जाय विद्या केसाधनेमें आसक्तहे चित्त जिसका और स्थिरहे निश्चय जिसका परम अद्भुत पूजा करताभया भगवानका अभिषेक कर अनेक षादित्र बजावता । अति मनोहर द्रव्यों से महासुगंध धूपकर नानाप्रकार की सामग्री से शांत चित्तभया शांतिनाथ की पूजा करता भया मानों दूजा इन्द्रहीहै शुक्न बस्त्र पहिरै महासुन्दर जे भुज बंध उनसे शोभितहै भुजा
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