Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पम चन्दनसे चर्चित हैं अंग जिनके तांबूलों से लाल अधर कांधे ऊपर खडग धरे सुन्दर वस्त्र पहिरे TH स्वर्णके आभूषण से शोभित सुन्दर चेष्टा धरे आगे पीछे अलग बगल पयादे चले जांय हैं वीण
बांसुरी मृदंगादि वादित्र बाजे हैं नृत्य होता जायहै कपिबंशियोंके कुमार लंका में ऐसे गए जैसे स्वर्ग पुरी में असुरकुमार प्रवेश करें अंगदको लंकामें प्रवेश करता देख स्त्रीजन परस्पर बार्ता करती भइ देखो यह अंगदरूप चन्द्रमा दशमुखकी नगरीमें निर्भय भया चलाजायहे इसने क्या प्रारम्भा आगे अब क्या होयगा इस भांति लोक बात करें हैं ये चले चले रावणके मंदिरमें गए सोमणियोंका चौक देख इन्होंने जानी ये सरोवरहै सोत्रासको प्राप्तभए फिर निश्चय देख मणियोंका चोक जाना तव आगे गए मुभेरुकी गुफासमान महा रत्नों से निर्मापित मंदिरका द्वार देखा माणयोंके तोरणोंसे देदीप्यमान वहां अंजन पर्वत सारिखे इन्द्र नील मणियोंके गज देख महास्कंध कुम्भस्थल जिनके स्थुलदंत अत्यन्त मनोग्य और तिनके मस्तक पर सिंहों के छावा जिनके सिर पर पूछ हाथियों के कुम्भस्थल पर सिंह विकराल बदन तीक्षण दाद डरावने केश तिनको देख पयादे डरे जानिए सांचेही हैं. तब भयकर। भागे अतिविहल भए अंगद ने नीके समझाए तब थागे चले रावण के महिल में कपि वंशी ऐसे जावें जैसे सिंहोंके स्थान में मृग जांय अनेक द्वार उलंघ धागे जाने को असमर्थ भए घरोंकी रचना गहन सो असे भटके जैसे जन्म का अंधाभ्रमें स्फटिकमणि के महिल वहां अाकाशकी आशंका से भ्रमको प्राप्त भए और. इन्द्र नीलमणि की भीति सो अन्धकार स्वरूप भासे मस्तक में शिला की लागी सो अाकुल होय भूमि में पड़े वेदना से व्याकुल हैं नेत्र जिनके किसीएक प्रकार गार्ग उलंघकर भागे गए जहां स्फदिक मणिकी
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