Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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३।
मुनि भया उसका शोककरे है हाय पिता यह कहा क्या जगत्को तज मुनिरूप धरा तुम मोसे तत्काल पुराण ऐसा स्नेह क्यों तजा में तुम्हारी बालक मोसे दया क्यों न करी बालअवस्था में मोपर तुम्हारी अति कृपा
थी मैं पिता और पुत्र और पति सबसे रहित भई स्त्रीके यही रक्षक हैं अब में कौनके शरण जाऊं में पुण्यहीन महा दुखको प्राप्त भई इस भांति मन्दोदरी रुदन करे उसका रुदन सुन सवही को दया उपजे अश्रुपातकर चतुर्मास्य कर दिया उसे शशिकांता आर्यिका उत्तम बचनकर उपदेश देतीभई हे मूर्खणी कहां रोवे है इस संसार चक्रमें जीवोंने अनन्त भवधरे तिनमें नारकी और देवोंके तो सन्तान नहीं और मनुष्यों
और तियचोंके है सो तैंने चतुर्गति भ्रमण करते मनुष्य तियचोंके भी अनन्त जन्मघरे तिनमें तेरेअनन्त पिता पुत्र बांधव भए जिनका जन्म २ में रुदन किया अब कहां विलाप करे है निश्चलता भज यह संसार असारहै एक जिनधर्मही सारहै तू जिनधर्मका पागधन कर दुखसे निवृति होय ऐसे प्रतिबोधके कारण आर्थिका के मनोहर बचन सुन मन्दोदरी महा विरक्त भई उत्तम हैं गुण जिसमें समस्त परिग्रह तज कर एक शुक्ल बस धारकर आर्यिका भई कैसी है मन्दोदरी मन बचनकायकर निर्भलजो जिनशासन उस में अनुरागिणी है और चन्द्रनखा रावणकी बहिन भी इसही आर्यिकाके निकट दीक्षाधर आर्यिका भई जिस दिन मन्दोदरी आर्यकाभई उसदिन अडतालीस हजार आर्यिकाभई इतिअठत्तरवां पर्व संपूर्णम्॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कह हैं हे राजन ! अब श्रीरामलक्ष्मणका विभूति सहित लंका में प्रवेश भया सो सुन महाविमानों के समूह और हाथियोंकी घटा और श्रेष्ठ तुरंगोंके समूह और मंदिर समान स्थ और विद्याधरोंके समूह और हजारां देव तिनकर युक्त दोनों भाई महाज्योति ।।
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