Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण ५८०३.
गान भए, जब स्नान होय चुका तब महापवित्र वस्र प्राभूषण पहिरे फिर पद्मप्रभुके चैत्यालय जाय बन्दना करी विभीषणने गमकी मिजमानी करी उसका बिस्तार कहां लग कहिए, दुग्ध दही घी शर्यत की वावड़ी भरवाई पक्वान और अन्नके पर्वत किए और जे अद्भुत बस्तु नन्दनादि बन में पाइये वे मंगाई मनको श्रानन्दकारी नासिकाको सुगन्ध नेत्रोंको प्रिय अतिस्वादको धरे जिह्वाको बल्लभष्ट रसोंसहित भोजनकी तयारी करी सामग्री तो सर्व सुन्दरही थी और सीताके मिलापकर रामको अति प्रिय लगीरामके चित्तकी प्रसन्नता कथनमें न आवे जब इष्टका संयोग होय तब पांचों इंद्रियोंके सर्वही भोग प्यारे लगे नातर नहीं, जब अपने प्रीतमका संयोग होयतब भोजन भली भांति रुचे मुगंधरुचे सुंदर बस्त्र का देखनारुचे रागका मुननारुचे कोमलस्पर्शरुचे मित्र के संयोगकर सब मनोहरलगे,और जब मित्रका वियोग होय तवस्वर्गतुल्य विषयभी नरकतुल्य भासे और प्रियके समागम विष महा विषमवन स्वर्गतुल्य भासे महा सुन्दर अमृतसारिखे रस और अनेक वर्णके अद्भुन भक्ष्य तिनकर रामलक्षमण सीताको तृप्त किये अद्भुत भोजन क्रिया भई भूमिगोचरी विद्याधर परिवार सहित अति सनमानकरजिमाए, चंदनादि सुगंधके लेप किये तिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं और भद्रसाल नंदनादिक वनके पुष्पों से शोभित किये और महा सुन्दर कोमल महीन बस्त्र पहिलाए नानाप्रकारके रत्नोंके आभूषण दिए कैसे हैं आभूषण जिनके रत्नों की ज्योतिके समूहकर दशोंदिशा में प्रकाश होरहा है जेते रामकी सेनाके लोक थेवे सब विभीषण ने सनमान कर प्रसन्न किये सबके मनोरथ पूर्ण किये रात्रि और दिवस सब विभीषण ही का यश करें अहो यह विभीषण राक्षसबश का प्राभूषणहै जिसने राम लक्षमणकी बड़ी सेवा करी यह महा प्रशंसा ।
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