Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पण योग्यहै मोटा पुरुष है यह प्रभावका धारक जगत विषे उतंगताको प्राप्तभया जिसके राम लक्षमण मंदिर ॥८०४ में पधारे, इस भांति विभीषणके गुण ग्रहण विषे तत्पर विद्याघर होते भए सर्व लोक मुख से तिष्ठे
राम लक्षमण सीता और विभीषण की कथा पृथ्वी विषे प्रवरती ॥
अथानन्तर विभीषणादिक सकल विद्याधर राम लक्षमण का अभिषेक करने को विनयकर उद्यमी भए तब श्रीराम लक्षमणने कही अयोध्या विषे हमारे पिताने भाई भरतको अभिषेक कराया सोभरत ही हमारे प्रभु हैं तब सपने कही आपको यही योग्य है परन्तु अब श्राप त्रिखंडी भए तो यह मंगल स्नान
योग्यही है इसमें क्या दोष है और ऐसी सुनने में आये है भरत महा धीर है और मन बचनकाय कर | आपकी सेवामें प्रवरत है विक्रियाको नहीं प्राप्त होयह ऐसा कह सबने गमलक्षमण का अभिषेक सकिय | जगत विषे बलभद्र नारायणकी प्रति प्रशंसा भई जैसे स्वर्ग विषे इंद्र प्रतिइंद्र की महिमा हो तैसे लंका विषे राम लक्ष्मणकी माहिमा भई इंद्रके नगर समान वह नगर महा भोगोंकर पूर्ण वहां राम लक्षमणकी आज्ञा से विभीषण राज्य करे है नदी सरोवरों के तीर और देशपुर प्रामादिमे विद्याधर राम लक्षमणही का यश गावते भए विद्याकर युक्त अद्भुत प्राभूषण पहिरे सुन्दर वस्त्र मनोहर हार सुगंधा दिकके विलेपन उनकर युक्त क्रीड़ा करते भए जैसे स्वर्ग विषे देव क्रीड़ा करे और श्रीरामचंद्र सीता | का मुख देखतें तृप्ति को न प्राप्तभए कैसा है सीताका मुख सूर्यके किरणकर प्रफुल्लित भया जो कमल
उस समानहै प्रभा जिसकी अत्यन्त मनकी हरणहारी जो सीता उस सहित राम निरंतररमणीय भूमि | विषे रमते भए और लचमण विशल्या सहित रतिको प्राप्त भए मनवांछित सकल वस्तु का है समागम
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