Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण ॥१२॥
पद्म विभीषण सब जानताथा सो मुझे बहुत समझाया मेरामन विकारको प्राप्तभया सोन मानी उससे द्वेष
किया जब विभीषण के बचनों से मैत्रीभाव करता तो नीके था अब महा युद्ध भया अनेक हतेगए अब कैसो मित्रता यह मित्रता सुभटों को योग्य नहीं और युद्ध करके फिर दया पालनी यह बने नहीं ग्रहो में सामान्य मनुष्य की न्याई संकट में पड़ा हूं जो कदाचित् जानकी रामपैं पठावों तो लोग मुझे असमर्थ जानें और युद्ध करिये तो महा हिंसा होय को ऐसे हैं जिनके दया नहीं केवल ऋरता रू पहें भी काल क्षेपकरें हैं और कईएक दयावान हैं संसार कार्यसे रहित हैं वे सुखसे जीव हैं में मानी युद्धाभिलाषी और कछु करुणाभाव नहीं सो हम सारिखे महा दुखी हैं और रामके सिंहवाहन और लक्ष्मण के गरुड़ बाहन विद्या सो इनकर महा उद्योत हैं सो इनको शस्त्र रहित करूं और जीवते पकड़ फिर बहुत धन और सीता दतो मेही बड़ो कीर्ति होय और मुझे पाप न होय यह न्याय है इसलिये यही करूं ऐसी मन में धार महा विभव संयुक्त रावण राजलोक में गया जैसे माता हाथी कमलों के बनमें जाय फिर अंगदने बहुत अनीति करी इस बात से अति क्रोध किया और लाल नेत्र होय पाए रावण हॉट डसता वचन कहताभया वह पापी सुग्रीव नहीं दुग्रीव है उसे निग्रीय कहिये मस्त करहित करूंगा उसके पुत्र अंगद सहित चन्द्रहास षड्ग कर दोय ट्रक करूंगा और तमो मण्डल को लोग भामण्डल कहें सो वह महा दुष्ट है उस दृढ़ बंधन से बांध लोह के मुदगरों से कट मारूंगा और हनुमान को तीक्षण करोत की धार स काठ क युगल में बान्ध विहराऊंगा वह महा अनीति हैं एक राम न्याय मार्गी है उसे छोडूंगा और समस्त अन्याय मार्गी | हैं तिनको शस्त्रों से चूरडारूंगा ऐसा विचार कर रावण तिष्ठा । और उत्पात सैकड़ों होने लगे सूर्य का
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