Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुराण 19५५॥
पद्म शिखर तुल्य ऊंचे महल जिनके मणियों की भीति मणियोंके झरोखा तिनमें तिष्ठती भ्रमररूप हैं नेत्र ।
जिनकेऐसी सब राणियों सहित मंदोदरी सो इसे देखती भई कैसा देखा लाल हैं नेत्र जिसके प्रतापका भरा उसे देखकर मोहित भयो मन जिसका फिर रावण उठकर प्रायुधशालामें गया कैसी है आयुधशाला। अनेक दिव्यशस्त्र और सामान्य शस्त्र तिनसे भरी अमोषवाण और चक्रादिक अमोघ रत्न कर भरी जैसे बजशाला में इन्द्रजाय जिससमय रावण आयुधशाला में गया उस समय अपसकुन भए प्रथम ही छींक भई सो शकुनशास्त्र में पूर्वदिशा को छींक होय तो मृत्यु और अग्नि कोण में शोक दक्षिण में हानि नैऋतमें शुभ पश्चिममें मिष्ट आहार वायुकोणमें सर्वसंपदा उत्तरविषेकलह ईशान विषेषनागम
आकाश विषे सर्व संहार पाताल विषे सर्व संपदा ये दशों दिशा विषे छींकके फल कहे सोगवणको मृतुकी छींक भई फिर आगे मार्ग रोके महा नाग निरखा और हा शब्द ही शब्द धिक शब्द कहां जाय है यह वचन होते भए और पवनकर छत्रके वैडूर्य मणि का दण्डभन्न भया और उतरासन गिर पड़ा काग दाहिनावोला इत्यादि और भी अपशकुनभए वे युद्ध में निबारते भए बचनकर कर्मकर निवारते भए जे नानाप्रकार के शकुन शास्त्र विषे प्रवीण पुरुषथे वे अत्यन्त आकुल भए और मंदोदरी शुकसारा इत्यादि बडे बडे मंत्रियों से कहती भई तुम स्वामी को कल्याण की बात क्यों न कहो हो अब तक क्या अपनी और उनकी चेष्टा न देखी कुम्भकर्ग इन्द्रजीत मेघनाद से बंधनमें आए वे लोकपाल समान महा तेजके धारक अद्भुत कार्यके करणहारे तब नमस्कार कर मंत्री मंदोदरी से कहते भए हे स्वामिनी रावण महामानी यमराजसा क्रूर प्रापही आप प्रधानहै ऐसा इस लोकमें कोई नहीं जिसके बचन रावण माने
For Private and Personal Use Only