Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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| बाणों के समूह कर सर्व दिशा पूर्ण करी जैसे मेघपटल कर पर्वत प्राछादित होय रावण बहुरूपिणी विद्या
के क्ल कर रणक्रीडा करता भया लक्षमण ने रावण का एक सीस छेदा, तब दोय सीस भए दोय छेदे तब चार भए और दोय भजा छेदी तवचार भई और चार छेदी तक्याठभई इस भांति ज्यों ज्यों छेदी त्यों त्यों दुगुनी भई और सीस दुगुणे भये हजारों सिर और हजारों भुजा भई रावण के कर हाथी के संड समान भुज बन्धन कर शोभित और सिर मुकटों कर मंडित तिन कर रणछेत्र पूर्ण भया, मानो रावण रूप समुद्र महाभयंकर उसके हजारों सिर वेई भए ग्राह और हजारोंभुजा वेईभईतरंग तिनकर बढ़ता भया और रावणरूप मेघ जिसके बाहुरूप विजुरी और प्रचण्ड है शब्द और सिरही भए शिखर उन कर सोहता भया. रावण अकेला ही महासेनो समान भया, अनेक मस्तक तिन के समूह जिन पर छत्र फिरें मानों यह विचार लक्ष्मणने इसे बहुरूप किया कि आगे में अकेले अनेकों से युद्ध किया, अब इस अकेले से क्या। युद्ध करूं इसलिये याहि बहुशरीरकिया रावणप्रज्वलित बनसमान भासताभया, रत्नों के आभूषण और शस्त्रों की किरणों के समूह कर प्रदीप्त रावण लक्षमण को हजारों भुजों कर बाण शक्ति खड्ग बरछी। सामान्य चक्र इत्यादि शस्त्रोंकी वर्षाकर श्राछोदता भया सो सब बाण लक्षमणने छेदे और महाक्रोध रूप होय सूर्य समान तेज रूप बाणों कर रावणके पीछादने को उद्यमी भया एक दोय तीन चार पांच छह । दस बीस शत सहस्र दश सहस्र मायामई रावण के सिर लक्षमणने छेदे हजारों सिर हजारों भुजा भूमि में पडे सो रणभूमि उनकर आछादित भई ऐसी सोहे मानों सर्पो के फणों सहित कमलों के बन हैं, भुजों सहित सिर पड़े. वे उल्कापात से भासें जेते रावणके बहुरूपिणी विद्या कर सर और भुज भए तेते सब ।
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