Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
पुराण
॥
१॥
..वीर वहांगए सो राम लक्षमण को देख अति विलोप करती भई तोड़ डारे हे सर्व आभषण जिन्होंने और
घुलकर धूसरा हैं अंग जिनका तब श्रीराम महा दयावन्त नानाप्रकार केशभ वचनों कर सर्व राणीयों को दिलासा करी धीर्य बन्धाया और आप सब विद्याधरों को लेकर रावण के लोकाचारकोगए कपूरअगर मलियागिरि चन्दन इत्यादि नानाप्रकार के सुगन्ध द्रव्योंकर पद्मसरोवर पर प्रतिहरिका दाह भया फिर सरोवर के तीर श्रीराम तिष्ठे कैसे हैं राम महा कृपालु है चित्त जिन का गृहस्थाश्रम में ऐसे परिणाम कोई विरले के होय हैं फिर अाज्ञा करी कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनाद को सब सामन्तों सहित छोड़ो तब कैयक विद्याधर कहते भए वे महाकर वित्त हैं और शत्रु हैं छोड़बे योग्य नहीं बन्धन ही में मरें तब श्रीराम कहते भए यह क्षत्रीयों का धर्म नहीं जिनशासन में क्षत्रीयों की कथा क्या तुमने नहीं सुनी है सूते को बन्धे को डरते को दन्त में तृण लेते को भागे को बाल वृद्ध स्त्री को न हने यह क्षत्री का धर्म
शास्त्रों में प्रसिद्ध है तब सब ने कही आप जो आज्ञा करो सो प्रमाण है, रामकी आज्ञा प्रमाण बड़े २ । योधा नाना प्रकार के आयुधों को धरे तिन के ल्यायवे को गए कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनाद मारीच
तथा मन्दोदरी का पिता राजा मय इत्यादि पुरुषों को स्थल बन्धन सहित सावधान योधा लिए श्रावे हैं सो माते हाथी समान चले आये हैं. तिनको देख वानरवंशी योधा परस्पर बात करते भए जो कदा|चित इन्द्रजीत मेघनाद कुम्भकर्ण रावणकी चिता जरती देख क्रोध करें तो कपिबंशियों में इनके सन्मुख
लड़ने को कोई समर्थ नहीं जो कपिवंशी जहां बैठा था वहां से उठ न सका और भामंडलने अपने सब योघावों से कहा जो इन्द्रजीत मेघनाद को यहां तक बंधेही अति यत्न से लाइयो अवार विभीषण
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