Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
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सुमित्रा के पुत्र लक्षमण ने छेदे जैसे महामुनि कर्मों के समूह को छेदें, रुधिर की धारा निरन्तर पड़ी तिनकर आकाश में मानों सांझ फूली, दोय भुजाका धारक लक्षमण उसने रावणकी असंख्यात भुजाविफल करी, कैसे हैं लक्षमण महा प्रभाव कर युक्त हैं रावण पसेव के समूह कर भरगया है अंग जिस का स्वास कर संयुक्त है मुख जिसका यद्यपि महाबलवान् था तथापि व्याकुलचित्त भया । गौतमस्वामी कहैं हैं है श्रेणिकं बहूरूपिणी विद्याके बलकर रावणने महा भयंकर युद्ध किया, पर लक्षमणके आगे बहुरूपिणी विद्या का बल न चला तब रावण मायाचार तज सहज रूप होय क्रोधका भरा युद्ध करता भया अनेक दिव्यास्त्रों कर और सामान्य शस्त्रों कर युद्ध किया परन्तु बासुदेव को जीत न सका । तब प्रलयकाल के सूर्य समान है प्रभा जिसकी परपक्ष का क्षय करणहारा जो चक्ररत्न उसे चितारा केसा है
रत्न प्रमाण प्रभाके समूह को घरे मोतियोंकी झालरियोंकर मंडित महा देदीप्यमान दिव्य वज्रमई नाना प्रकार के रत्नों कर मंडित है अंग जिसका दिव्यमाला और सुगन्ध कर लिप्त अग्नि के समूह तुल्य धारावों के समूहकर महा प्रकाशवन्त वैडर्य मणि के सहस्र आरे जिन कर युक्त जिस का दर्शन सहा न जाय, सदा हजार यक्ष जिसकी रक्षा करें महा क्रोध का भरा जैसा काल का मख होय उस समान वह चक्र चितवते ही कर में आया, जिसकी ज्योति कर जोतिष देवों की प्रभा मन्द होय गई और सूर्य की कांति ऐसा होय गई मानों चित्राम का सूर्य है और अप्सरा विश्वासु तूंवरु नारद इत्यादि गंध के भेद आकाश में राका कौतुक देखते थे सो भयकर परे गए, और लक्षमण अत्यन्त शत्रु कोच संयुक्त देख कहता भया, हे अधम नर इसे क्या लेरहा है जैसे कृपण कौडीको रहे
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