Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir
चुराख 118980
जीता यह मोह संसार भ्रमणका कारण धिक्कार मुझे जो मोह के वश हाय ऐमी चेष्टा करी रावणतो यह चितवनकरे है और अायाहै चक्र जिसके ऐसा जो लक्षमण महा तेजका धारक सो विभीषणकी अोर निरख रावण से कहता भया हेविद्याधर अबभी कळू न गया है जानकीको लाय श्री रामदेव को सोंपदे और यह बचन कह कि श्रीरामके प्रसादकर जीवं हूंहमको तेरा कछु चाहिये नहीं तेरी राज्यलक्ष्मी तरेही रहो तब रावण मंदहास्य कर कहताभया हे रंक तेरेवृथा गर्व उपजाहै अवारही अपने पराक्रम तुझे दिखावूहूं हे अधम नर में तुझे जो अवस्था दिखाऊं सो भोग, मैं रावण पृथ्वीपति विद्याधर तू भूमिगोचरी रंक,तब लक्ष्मण बोले बहुत कहिनेसे क्या मैं नारायण संवथा तेरा मारणहारा उपजा, तब रावगाने कही इच्छा मात्रही नारायण हूजिये है तो जो तू चाहे सो क्यों न हो इन्द्रहो, तू कुपुत्र पिताने देशसे बाहिर किया महा दुखी दलिद्री बनचारी भिखारी निर्लज्ज तेरी बासुदेव पदवी हमने जानी तेरमेनमें मत्सर है सो मैं तेरे मनोरथ भंग करूंगा यह घेघलीसमान चक्रहै जिससे गर्वा है सो रंकों की यही गति खलिका टूकपाय मनमें उत्सव करे बहुत कहिवेसे क्या ये पापी विद्याधर तुझ सोमले हैं तिन सहित और इस चक्रसहित वाहन सहित तेरा नाशकर तुझे पातालको प्राप्त करूंगा,ये रावणके बचन सुनकर लक्षमणने कोपकर चक्रको भ्रमाय सरण पर चलाया बज्रपातके शब्दसमान भयंकरहै शब्द जिसका और प्रलयकालके सूर्यसमान तेजको धरे चक्र रावण पर आया तब रावण बाणोंसे चक्रके निवारबेको उद्यमी भया, फिर प्रचंड दण्ड कर और शीघ्रगामी बज्र बाणकर चक्रके निवारवे का यत्न किया तथापि रावणका पुण्य क्षीण भया जो चक्रन रुका नजीक पाया तब रावण चन्द्रहास खडग लेकर चक्रके समीप अाया चक्रके खडगकी दई
For Private and Personal Use Only