Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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जिसका दाडिमके बीज समान दांत मूंगासमान लालधर अत्यन्त सुकुमार अतिसुन्दरी भरतार की। पुराण | कृपा भूमि सो नाथको प्रणामकर कहती भई हे देव मुझे भतार की भीख देवो श्राप महादयावन्त
धर्मात्माओंसे अधिक स्नेहवन्त मैं तुम्हारे वियोगरूपनदी विषे डूबूहू सो महाराज मुझे निकासो कैसी है नदी दुःखरूप जलकी भरी संकल्प विकल्परूप लहरकर पूर्गहै, हेमहाबुद्धे कुटुम्बरूप श्राकाशविषेसूर्यसमान प्रकाशके कर्ता एक मेरी बिनती सुनों तुम्हाग कुलरूप कमलोंका वन महा विस्तार्ण प्रलय हुआ चायैह सो क्यों न राखो हे प्रभो तुम मुझे पटगणी का पद दिया सो मेरे कठोरवचनोंकी छमा करो जे अपनेहित हैं तिनका बचन यौषध समान ग्राधहै परिणाम सुखदाई विरोध रहित स्वभावरूप आनन्दकारी है में यह कहूं हूं तुम काहे को संदेहकी तुला चढ़ो हो यह तुला चढिवे की नहीं काहेको श्राप संताप करो हो और हम सब को संतापरूप करो हो अबभी क्या गया तुम्हारा सब राज तुम सकल पृथिवी के स्वामी और तुम्हारे भाई पुत्रों को बुलाय लेहु तुम अपना चित्त कुमार्ग से निवारो अपनामन वश करो तुम्हारा मनोरथ अत्यन्त अकार्य विषेप्रबरता है सो इंद्रीय रूप तरल तुरंगों को विवेक रूप दृढ़ लगामकर वश करो इंदियों के अर्थ कुमार्ग विष मनको कौन प्राप्त करे तुम अपबाद का देन हाग जो उद्यम उस विषे कहा प्रवर्ते जैसे अष्टापद अपनी छाया कूपविषे देख क्रोध कर कृप विषे पड़े तैसे तुम अप ही क्लेरा उपजाय आपदामें पड़ो हो, यह क्लेश का कारणजोअपयशरूप वृक्ष उसे तज कर सुख से तिष्ठो केलि के थंभ समान असार यह विषय उसे कहां चाहो हो यह तुम्हारा कुल समुद्रसमान गंभीर प्रशंसा योग्य उसे सोभित करो यह भूमि गोचरीकी स्त्रा बड़े कुलवन्तों को सिरवायु सनान है उसे तजो हेस्वामी जे सामंत
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