Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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19३॥
रमावतेभये और कईयक नारी अपने बदन की प्रतिविश्व रत्नोंकी भीतिमें देखकर जानतीभई कि कोई दूजी स्त्री मन्दिरमें पाई है सो ईर्पा कर नील कराल से पति को ताडना करती भई, स्त्रियों के मुख की। सुगन्धता कर केसर सुगन्ध होय गया और कैयक योगकर नारियों के नेत्र लाल होय गए और कोई यक नायिका नवोढ़ा थी और प्रीतमने अमल खवाय उन्मत्तकारी सो मन्मथ कर्ममें प्रवीण प्रौढ़ाके भावको प्राप्तभई लज्जा रूप सखीको दूरकर उन्मत्ततारूप सखीने क्रीड़ा में अत्यन्त तत्परकरी और घमें हैं नेत्र जिसके और रसखलित, वचन जिसके स्त्री पुरुषोंकी चेष्टा उन्मत्तताकर विकटरूप होतीभई नर नारियोंके अधर मंगा समान शोभायमास दीखते भये, नर नारी मदोन्मत्त भये सो न कहनेकी बात कहते भये
और न करने का बात करतेभये लज्जा छुटगई चन्द्रमा के उदय कर मदनकी बृद्धि भई ऐसाही तो इन का योबन ऐसेहो सुन्दर मन्दिर और ऐसाहो अमल का जोर सो सबही उन्मत्तता चेष्टाका कारण प्राय । प्राप्त भया, ऐसी निशा में प्रभातमें होनहार है युद्ध जिनके सो संभोगका योग उत्सवरूप होता भया,
और राक्षसोंका इन्द्र सुन्दरहै चेष्टा जिसकी सो समस्तही राजन्लोकको रमावताभया बारम्बार मन्दोदरी से स्नेह जनावता भया इसका बदन रूपचन्द्र निरखते रावणके लोचन तुम्न न भये मन्दोदरी रावणसे कहती भई में एक क्षणमात्र भी तुमको न तजंगी हे मनोहर सदा तुम्हारे संगही रहूंगी जैसे बेल वाहवल के सर्वअंगसे लगी तैसे रहगी आप युद्ध में विजय कर वेगही आवो, में रत्नोंको चूर्ण कर चौंक पूरूंगी
और तुम्हारे अर्घपाद्य करूंगी प्रभुकी महामख पूजा कराऊंगी प्रेमकर कायरहै चित्त जिसका अत्यन्तप्रेम के वचन कहते निशा व्यतीतभई और कूकडा बोले नक्षत्रोंकी ज्योती मिटी संध्यालालभई और भगवान
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