Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण 19891
आगे मन्दोदरी को पकड़ ल्याया जैने मृगराज मृगी को पकड, ल्यावे कंपाय मान हैं नेत्र जिसके | चोटी पकड रावण के निकट खींचता भया जैसे भरत राज लक्ष्मी को खींचे और रावण को कहताभया देख यह पटरानी तेरे जीव से भी प्यारी मन्दोदरी गुणवन्ती उसे हम हर लेजांय हैं यह सुग्रीव के चमर ग्राहिणी चेरी होयगी सो मन्दोदरी प्रांखों से आंसू डारती भई और विलाप करने लगी रावण के पायन में प्रवेश करे कभी भुजों में प्रवेश करे और भरतार सों कहती भई हे नाथ मेरी रक्षा करो ऐसी दशा मेरी कहां न देखो हो तुम क्या और ही होय गए तुम रावण हो अक औरही हो अहो जैसी निरग्रन्थ मुनिकी वीतरागता होय तैसी तुम वीतरागता पकड़ी सो ऐसे दुख में यह अवस्था क्या धिक्कार तुम्हारे बलको जो इस पापी का सिर खडग सो न काटो तुम महा बलवान चांद सूर्य समान पुरुषोंका पराभव न सहो सो ऐसे रंक का कैसे सहो हे लंकेश्वर ध्यान में चित्त लगाया न काहकी सुनो न देखो अर्घ पर्यकासन घर बैठे अहंकार तज दिया जैसा सुमेरु का शिखर अचल होय तैसे अचल होय तिष्ठे सर्व इन्द्रियों की क्रिया तजी विद्या के आरोधन में तत्पर निश्चल शरीर महा धीर ऐसे तिष्ठे हो मानों काष्ठ के हो अथवा चित्राम के होजैसे राम सीता को चिन्तवें तैसे तुम विद्या को चितवो हो स्थिरता से सुमेरु के तुल्य भए हो जब इस भान्ति मन्दोदरी रावण से कहती भई उसही समय बहुरूपिणी विद्यादशों दिशा में द्योत करती जय जय कार शब्द उचारती रावण के समीप अाय ठाडी रही, और कहती भई हे देव प्राज्ञा विषे उद्यमी मैं तुम को सिद्ध भई मुझे आदेश देवो एकचक्री अर्धचक्री को टार जो तुम्हारी अाज्ञा से विमुख होय उसे वश करूं इस लोक में तुम्हारी प्राज्ञाकारणी हूं हम सारिखों की यही रीती है ||
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