Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण
॥७३३।
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जिसकी सिरके केश भली भांति बांध उनपर मुकुटधर उसपर चूड़ामणि लहलहाट करती महाज्योति को घरे रावणदोनों हाथ जोड़े गोड़ोंसे धरतीको स्पर्शता मन बचन कायसे शांतिनाथको प्रणाम करता भया श्री शांतिनाथ के सन्मुख निर्मल भूमिमें खडा अत्यन्त शोभताभया कैसी है भूमि पद्मरागमणि की है फर्श जिस में और रावण के स्फटिकमणिकी माला हाथ में और उरमें धरे कैसा सोहता भया मानों क पंक्ति संयुक्त कारी घटाका समूहही है वह राक्षसोंका अधिपति महाधीर बिद्याका साधन आरंभता भया जब शांतिनाथ के चैत्यालय गया उस पहिले मंदोदरी को यह आज्ञा करी कि तुम मंत्रियों को और कोटपालको बुलायकर यह घोषणा नगर में फेरियो कि सर्वलोक दयाविषे तत्पर नियम धर्म के धारक होवें समस्त व्यापारतज़ जिनेंद्रकी पूजाकरो और थर्थी लोगों को मनवांछित धन देवो अहंकार तजो जौलग मेरा नियमन पूरा होय तौलग समस्त लोग श्रद्धाविषे तत्पर संयम रूप रहोजो कदाचित कोई बाधा करे तो निश्चय सेती सहियो महाबलवान होय सो बलका गर्व न करियो इन दिवसों में जो कोऊ क्रोधकर विकार करेगा सो अवश्य सजा पावेगा जो मेरे पिता समान पूज्य होय और इन दिनों में कषाय करे, कलह करे उसेमें मारूं जो पुरुष समाधिमरण से युक्त न होयसो संसार समुद्रको नतिरे जैसे अंधपुरुष पदार्थों को न परखे तैसे अविवेकी धर्मको न निरखें इसलिए सब विवेक रूप रहियो कोऊ पाप किया न करनेपावे, यहद्याज्ञा मंदोदरीको कर रावण जिनमंदिर गए और मंदोदरी मंत्रियोंको और यमदंडनामा कोटपाल को द्वारे बुलाय पति कीथाज्ञा प्रमाण आज्ञा करती भई तब सबने कहा जो आज्ञाहोयगी सोही करेंगे यहकह श्राज्ञा सिरपर घर घर गये और संशय रहित नियम धर्मके उद्यमी
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