Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥७४01
पन पण, का वचन मान विद्याधरकुमार महा ऊद्धत कलहप्रिय श्राशीविष समान प्रचण्ड व्रतरहित चपल चञ्चल
लंका में उपद्रव करते भए तिनके महाभयानक शब्द सुन लोक अति व्याकुलभए और रावणके महलमें भी व्याकलतो भई जैसे तीब्र पवन से समुद्र क्षोभ को प्राप्त होय तैसे लंका कपिकुमारों से उद्धेग को प्राप्त । भई रावण के महिल में राज लोकों को चिन्ता उपजी कैसा है रावण का मन्दिर रत्नों की कांति कर | देदीप्यमान है और जहां मृदंगादिक के मंगल शब्द होबे हैं जहां निरन्तर स्त्री जन नत्य करे हैं और । जिनपूजा में उद्यमी राज कन्या धर्म मार्ग में प्रारूद सोशत्रु सेना के कर शब्द सुन आकुलता उपजी । त्रियों के आभूषणों के शब्द होते भए मानों बीण बाज़े हैं सब मन में विचारती भई न जानिए क्या होय इसभांति समस्त नगरी के लोग ब्याकुलता को प्राप्त भए विहल भए तब मन्दोदरी का पिता राजा मय विद्याघरों में दैत्य कहावे सो सब सेना सहित बक्तर पहिर आयुध घार महा पराक्रमी युद्धके अर्थ उद्यमी होय राजदार आया जैसे इन्द्र के भवन हिरण्यकेशी देवावे तब मन्दोदरी पिता से कहती भई हे तात जिस समय लंकेश्वर जिन मंदिर पधारे उस समय अाज्ञा करी कि सब लोक संबररूप रहियो कोई कषाय मत करियो इसलिये तुम कषाय मत करो ये दिन धर्म ध्यानके हैं सो धर्म सेवो और भांति करोगे तो स्वामीकी आज्ञा भंग होयगी और तुम भला फल न पावोगे, ये वचन पुत्रीके सुनराजा मय उद्धतता तज महा शांत होय शस्त्र डारतेभये जैसे अस्त समय सूर्य किरणोंको तजे मणियोंके कुण्डलों से मंडित और हार कर शोभे हैं वक्षस्थल जिसका अपने जिनमन्दिर में प्रवेश करता भया और ये बानर बंशी विद्याधरों के कुमारोंने निज मर्यादा तज नगरका कोट भंग किया वज्रके कपाठ तोड़े दरवाजा तोड़े।
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