Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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में यह बात उचित नहीं जे शवीर हैं तिनके मोटी आपदा में विषाद नहीं तुम बीराघिवीर चत्री हो पुराव तुम्हारे कुलमें तुम्हारेपुरुष और तुम्हारे मित्र रण संग्राम में अनेक क्षयभये सो कौन रकाशोककरोगो तुमने
कभी किसीका शोक न किया अब खरदुषणका एता सोच क्यों करो हो पूर्वे इन्दके संग्राम विषे तुम्हारा काका श्रीमाली मरणको प्राप्तभया और अनेक बांधव रण में हते गए तुम काहू का कभी शोक म किया आज ऐसा सोच दृढ़ क्यों पड़ा है जैसा पूर्व कभी हमारी दृष्टिना पड़ा तब रावण निश्वास नाख बोला हे सुन्दरी सुन मेरे अन्तःकरण का रहस्य तुझे कहूं तू मेरे प्राणों की स्वामिनी है और सदामेरी बांछापूर्ण करहै जो तू मेरा जीतन्य चाहे है तोकोप मतकरमैं कहूं सो कर सर्ववस्तु का मूल प्राण हैं तब | मन्दोदरीने कही जो पाप कहो सो में करूं तब रावण इसकी सलाह लेय विलखाहीय कहताभया हेप्रिये एक सोतानामा स्त्री स्त्रियोंकी सृष्टि में ऐसी और नहीं सो वह मुझे न इच्छे तो मेरा जीवना नहीं मेरी लावएयतारूप यौवन माधुर्यता सुन्दरता सुन्दरीको पायकर सफल होय तब मन्दोदरी इसकी दशा कष्टरूप जान हंस कर दान्तों की कान्तिरूप चान्दनी को प्रकाशती सन्ती कहती भई हे नाथ यह बड़ाआश्चर्य है तुम सारीखे प्रार्थनाकरे और वह तुम को न इच्छे सो मन्दभागिनी है इससंसार में ऐसी कौनपरम सुन्दरी है जिस का मन तुम्हारे देखे खण्डित न होय और मन मोहित न होय अथवा वह सीता कोई परम उदय रूप अद्भुत त्रैलोक्य सुन्दरी है जिस को तुम इच्छो हो और वह तुम को नहीं इच्छे है ये तुम्हारेकर हस्ती की सुण्ड समान रत्नजड़ित वाजूओं से युक्त उन से उर से लगाय बलात्कारे क्यों न सेवो तब | रावण ने कहीउस सर्वाग सुन्दरीको में बलात्कार नहीं गहूं उसका कारण सुन अनन्तवीर्यकेवलीके निकट
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