Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥६६२
से युद्धकरने को गए सो तो सब बृतान्त तुम जानो हो फिर रावण आया और आप श्रीराम के पास विराजती थी सो रावण यद्यपि सर्वशास्त्र का वेत्ता था और धर्म अधर्म का स्वरूप जाने था परन्तु प्राप को देखकर अविवेकी होयगया समस्त नीति भलगया बुद्धि जाती रही तुम्हारे हरिनेके कारण कपट कर सिंहनाद किया सो सुनकर राम लक्षमणपै गए और यह पापी तुमको हर ले आया फिर लक्षमण ने रामसे कही तुम क्यों ओएशीघ्र जानकीपै जावोतब भाप स्थानक पाए तुमको न देखकर महाखेद | खिन्न भए तुम्हारे ढूंढने के कारण वनमें बहुत भ्रमें फिर जटायु को मरते देखा तब उसे नमोकार मन्त्र दिया और चार आराधना सुनाय सन्यास देय पक्षी का परलोक सुधारा फिर तुम्हारे विरह से महादुखी सोच से परे और लक्षमण खरदूषण को हन राम पे आया धीर्य बंधाया और चन्द्रोदय-का पुत्र विराधित लक्षमणसे युद्धही में प्राय मिला था फिर सुग्रीव रामपै अाया और साहसगति विद्याघर जो सुग्रीव का रूप कर सुग्रीवकी स्रीका अर्थी भया था सो रामकोदेख साहसगतिकी विद्या जाती रही सुग्रीवका रूप मिटगया और साहसगति रामसेलड़ा सो साहसगतिको रामने मारा सुग्रीवका पकार किया तब सबने मुझबुलाय रामसे मिलाया अबमें श्रीरामका पठाया तुम्हारे छुड़ायवेअर्थ यहांआया हूं परस्पर युद्ध करना निःप्रयोजनहै कार्य की सिद्धि सर्वथा नयकर करनी और लंकापुरीका नाथदयावान् है विनयवान् है धर्म अर्थ काम का बेत्ता है कोमल हृदयहै सौम्यहै वक्रतारहितहे सत्यवादी महाधीरवार । है सो मेरा वचन मानेगा तोहि रामपै पठाबेगा उसकी कीर्ति महा निर्मल पृथिवी पर प्रसिद्ध है और यह लोकापबाद से डरे है तब सीता हर्षित होय हनूमान से कहती भई कि हे कपिध्वज तो सरीखे
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