Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
॥१२॥
चले हैं धर्मकी उत्पत्ति तुम से है जैसे समुद्रसे रत्नोंकी उत्पत्ति होय ऐसा कहकर बडे मंत्री हाथ जोड़ नमस्कार करते भए और हाथ जोड बिनती करते भए सबने यह मंत्र किया कि एक सामंत वा दूत विद्या में प्रवीण सन्धि के अर्थ राम पै पठाइये सोएक बुद्धिसे शुक्रसमान महा तेजस्वी प्रतापवान मिष्ट बादी उसे बुलाया सो मंत्रियों ने महासुन्दर महाअमृत औषधी समान बचन कहे परन्तु गबणने नेत्र की समस्या कर मंत्रियोंका अर्थ दूषितकर डाला जैसे कोई विषसे महाऔषधि को बिषरूप कर डारे तैसे रावण संधिकी बात विग्रहरूप जताई सो दूत स्वामीको नमस्कार कर जायवेको उद्यमी भया कैसा है दूत बुद्धि के गर्व से लोकको गोपद समान निरखे है आकाशके मार्ग जाता रामके कटकको भयानक देख दूतको भय न उपजा इसके बादित्र सुन बानरबंशियोंकी सेना क्षोभको प्राप्त भई रावगा के पागम की शंका करी जब नजीक आया तब जानी यह रावण नहीं कोई और पुरुष है तब बानर बंशियोंकी सेनाको विश्वास उपजा दूत द्वारेश्राय पहूंचा तब द्वारपालने भामण्डल से कही भामण्डलने रामसे बिनतीकर केतेक लोकों सहित निकट बुलाया और उसकी सेना कटकमें उतरी रामसे नमस्कारकर दूत बचन कहता भया हे रघुचन्द मेरे वचनोसे मेरे स्वामीने तुमको कुछकहा है याते चित्त लगाय सुनो युद्धकर कछु प्रयोजन नहीं आगे युद्धके अभिमानी बहुप्त नाशको प्राप्तभए इस लिये प्रीतिही योग्य है युद से लोकोंका तय होय है और महा दोषउपजे हैं अपवाद होयहै पागे संग्राम की रुचिकर राजा दुर्वर्तक शंख धवलांग असुरसम्बरादिक अनेक राजो नोशको प्राप्त भए इसलियेमेरे सहित तुम को प्रीति ही योग्य है अहो जैसे सिंह महापर्वत की 'गुफा को पाय कर सुखी होय है तैसे अपने मिलोप से सुख
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