Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
11७३१॥
टक क्यों न होय मेरे इस सीता बिना इन्द्र के भोगों से कार्य नहीं यह सर्व पृथिवी तू भोग में बनवास ही करूंगा और तू पर दारा हरकर मरनेको उद्यमी भया है तो में अपनी स्त्रीके अर्थ क्यों न मरूंगा और मुझे तीनहजार कन्या देहै सो मेरे अर्थ नहीं में बनके फल और पत्रादिकही भोजन करूंगा और सीता सहित बट में विहार करूंगा और कपिध्वजों का स्वामी सुग्रीव उसने हंसकर मोह कही जो कहा तेरा स्वामी अाग्रहरूप ग्रहके वश भयाहै कोई वायु का विकार उपजा है जो ऐसी विपरीत वार्ता रंक हुवा बके है और क्या लंका में कोऊ वैद्य नहीं अक मन्त्र वादी नहीं बायके तेलादिक कर यत्न क्यों न करे नातर संग्राममें लक्षमण सर्वरोग निवारेगा। भावार्थमारेगा। तब यह वचनसुन में क्रोधरूप अग्निकर प्रज्वलित
और सुग्रीवसे कही रेवानरध्वज तू ऐसे बके है जैसे गज के लार स्वान बके तू राम के गर्व से मवा चाहे है जो चक्रवर्ति कनिन्दा के वचन कहै है सो मेरे और सुग्रीवके बहुत बात भई और में राम सों कहा हे राम तुम महा रण में रावण का पराक्रम न देखा कोऊ तुम्हारे पुण्य के योग से बहु बार विकराल क्षमा में आये हैं वह कैलाश को उठावनहारा तीन जगत् में प्रसिद्ध प्रतापी तुम से हित किया चाहे है और राज्य देय है उस समान और क्या तुम अपनी भुजासे दशमुख रूपसमुद्रको कैसे तरोगे कैसा है दशमुख रूप समुद्र प्रचंड सेनो सोई भई तरंगों की माला तिनसे पूर्ण है और शस्त्ररूप जलचरों के समूह से भरा है हे राम तुम कैसे रावणरूप भयंकर बन में प्रवेश करोगे, कैसा है रावणरूप बन दुर्गम कहिए जिस विषे प्रवेश करना कठिन है और व्याल कहिए दुष्टगज वेईभए नाग तिनसे पूर्ण है और सेनारूप वृलों से समह ने महा विषम है, हे राम जैसे कमल पनकी मवनसे सुमेरु न डिगे और सूर्य की किरणों
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