Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराम
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|| शरीर क्षीण कटि दिग्गज के कुम्भस्थल समान स्तन हैं जाके नव यौवन मानो साक्षात् मूर्तिवन्ती काम |
की क्रीड़ा ही है मानों तीनलोक की शोभा एकत्रकर नाम कर्म ने इसे रची है उसे लक्ष्मण देख आश्चर्य । को प्राप्त होय मनमें विचारता भया यह लक्ष्मी है अक इन्द्र की इन्द्राणी है अथवा चन्द्र की कान्ति है। यह विचार करे है और विशिल्या की लारकी स्त्री कहती भई हे स्वामी तुम्हारे विवाह का उत्साह हम देखा चाहे हैं तब लक्ष्मण मुलके और विशिल्या का पाणिग्रहण किया और विशिल्या की सर्व जगत्में कीर्ति विस्तरी, इसभांति जे उत्तम पुरुष हैं और पूर्वजन्म में महा शुभ चेष्टा करी है तिन को मनोग्य वस्तु का सम्बन्ध होय है और चांद सूर्य कीसी उनकी कांति होय है ॥ इति पेंसठवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथान्तर लक्ष्मण का बिशिल्यासे विवाह और शक्तिका निकासना यहसब समाचार रावणने हलकारी के मुख मुने और सुनकर मुलिक कर मंद बुद्धि कर कहता भया शक्ति निकसीतो क्या और विशिल्या ब्याही तो क्या तब मारीच आदि मन्त्री मंत्र में प्रवीण कहते भए हे देव तुम्हारे कल्याणकी बात यथार्थ कहेंगे तुम कोप करो अथवा प्रसन्न होवो सिंह बाहनी गरुड़वाहनी विद्या रामलक्षमणको यत्न बिना सिद्ध भई सो तुमदेखी और तुम्हारे दोनों पुत्र और भाई कुम्भकर्ण को तिन्होंने बांधलिए सो तुम देखे और तुम्हारी दिव्य शक्ति सो निरर्थक भई तुम्हारे शत्रु महाप्रबल हैं उनसे जो कदाचित तुम जीतेभी । तो भ्रात पुत्रों का निश्चय नाश है इसलिये ऐसा जानकर हमपर कृपा करो हमारी बिनती अबतक आप. ने कदापि भंग न करी इस लिये सीता को तजो और जो तुम्हारे धर्म बुद्धि सदा रही है सो राखो सर्व लोक को कुशल होय राघवसे संधि करो यहबात करनेमें दोष नहीं महा गुण है तुम हीसे सर्व लोकमें मर्यादा
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