Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥२४॥
गान किया और अपने हाथोंकी नस बजाई और जिनेन्द्र के चरित्र गाये तब धरणेद्र का प्रासन कंपायमान | पुराण' भया सो धरणींन्द्र परम हर्षधर पाए रावण सो अति प्रसन्न होय मुझे दई मोरावण याचना में कायर मुझे
न इच्छे तब धरणेन्द्र ने हठकर दई सो में महो विकराल स्वरूप जिस के लगूउसके प्राण हरूं कोई मुझे निवाखे समर्थ नहीं एक इस विशल्या सुन्दरी को टार में देवों की जीतन हारी सो में इसके दर्शन ही से भाग जाऊं, इसके प्रभाव कर में शक्ति रहित भई तप का ऐसा प्रभाव है जो चाहे तो सूर्य को शीतल करे और चन्द्रमा को उष्ण करे इसने पूर्व जन्म में अति उग्रतप किए मिझना के फल समान इसका सुकुमार शरीर सो इसने तप में लगाया ऐसा उग्रतप किया जो मुनो से भी न बने, मेरे मन में संसार विषे यही सार भासे है जो ऐसे तप प्राणी करें वर्षा शीतल आताप और महा दुस्सह पवन तिनसे यह सुमेरु की चलिका समान न कांपी धन्य रूप इसका धन्य याका साहस धन्य इसका धर्म विषे हदमन इसकासा तप और स्त्रीजन करने समर्थ नहीं सर्वथा जिनेन्द्र चन्द्र के मत के अनुसार जे तपको धारण करे हैं वे तीनलोक को जीते हैं अथवा इसबात का क्या अाश्चर्य जिस तपसे मोक्ष पाईये उससे और क्या कठिन । में पराए अाधीन जो मुझ चलावे उसके शत्रु का में नाश करूं सो इस ने मुझे जीती अब मैं अपने स्थान क जाऊंहूं सो तुम तो मेरो अपराध क्षमा करो इसभांति शक्तीदेवीने कहा तब तत्वका जाननहारो हनूमान् उसे विदा कर अपनी सेना में पाया और द्रोणमेघ की पुत्री विशिल्या अति लज्जा
की भरी राम के चरणारबिन्द को नमस्कार कर हाथ जोड़ ठाढ़ी भई विद्याधर लोक प्रशंसा करते भए और | नमस्कार करते भए और पाशीर्वाद देते भए जैसे इन्द्र के समीप शची जाय तिष्ठे तैसे वह विशिल्या
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