Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
६८२॥
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तुमही प्रमोहो श्रीजिननाथ तो इसजन्म परभव के स्वामी और रघुनाथ इसलोक के स्वामी इस भांति प्रतिज्ञा करी तब श्रीरामकहते भये तुझे निःसंदेह लंकाका धनी करूंगा सेना में विभीषण के श्रावने का उत्साह भया ।
अथानन्तर भामंडल भी आया कैसा है भामंडल अनेक विद्या सिद्ध भई हैं जिसको सर्व विजियार्थ का अधिपति जब भामंडल आया तब राम लक्ष्मण आदि सकल हार्पितभए भामंडल का यति सन्मान किपा भाउ दिन हंसदीप में रहे फिर लंका को सन्मुख भए नानाप्रकार के अनेक रथ और पवन से भी अधिक तेज को घरे बहुत तुरंग और मेघमाला से गयंदो के समूह और अनेक सुभटों सहित श्री राम ने लंकाको पयानं किया समस्त विद्याधरसामंत श्राकाशको श्रावादते हुए राम के संग चले सबमें
प्रेसर वानरवंशी भए जहां रण छेत्र थापा है वहां गए संग्राम भूमि बीसयोजन चौड़ा है और लंबाई का विस्तार विशेष है वह युद्धभूमि मानों मृत्यु की भूमि है इस सेना के हाथीगाजे और अश्व हिंसे विद्याधरों के वाहन सिंह हैं उन के शब्द हुए और वादित्र वाजे तब सुनकर रावण अति हर्षको प्राप्त भया मनमें बिचारी बहुत दिन में मेरे रखका उत्साह भया समस्त सामंतों को श्राज्ञा भई कि युद्ध के उद्यमी होवो सो समस्तही सामंत याज्ञा प्रमाख श्रानन्द से युद्ध को उद्यमी भए कैसा है शवया युद्ध में है हर्ष जिसको जिसने कभी भी सामंतों को अप्रसन्न न किया सदा प्रसन्नही राखे सो श्रव युद्ध के समय सबही एक चित्त भए मास्कर नामापुर, तथापयोस्पुर, कांचनपुर, व्योम बल्लभपुर, गंधर्व गीतपुर, शिवमंदिर, कंपनपुर सूर्योदयपुर अमृतपुर, शोभासिंहपुर, सत्यगीतपुर' लक्ष्मीगीतपुर, किंनरपूर बहुनागपूर, महाशलपूर चक्रपुर, स्वर्णपुर सीमंतपुर मलयानंदपुर श्रीगृहपुर श्रीमनोहरपुर रिपुंजयपुर शशिस्थानपुर मार्तंडप्रभपुर
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