Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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युद्धभया सो समुद्रके बहुत लोक मारेगए और नलने समुद्रको बांधा फिर श्रीरामसे मिलाया और वहांही डेराभए श्रीरामने समुद्रपर कृपाकरी उसकाराज्य उसको दिया सो राजासमुद्रनेति हर्षित होय अपनी कन्या सत्यश्री कमला गुणमाली रत्नचड़ा स्त्रियों के गुपकर मंण्डित देवांगना समान सो लक्षमण से पराई वहां एक रात्री रहे फिर यहांसे प्रयाणकर सुवेल पर्वतपर सुवेल नगरगए वहां राजा सुबेल नाम विद्याधर उसको संग्राम में जीत रामके अनुचर विद्याधर क्रीड़ा करतेभए वैसे नन्दन बन में देव क्रीड़ा करें वहां अक्षय नाम वन में आनन्द से रात्रि पूर्णकरी फिर प्रयाणकर लंका आय को उद्यमी भए कैसी है लंका ऊंचे कोट से युक्त सुवर्ण के मन्दिरोंकर पूर्ण कैलाश के शिखर समान है आकार जिनके और नाना प्रकारके रत्नों के उद्योतकर प्रकाशरूप और कमलोंके जे वन तिनसे युक्त वापी सरोवरादिक कर शोभित नाना प्रकार रत्नोंके ऊंचे जे चैत्यालय तिनकर मण्डित महा पवित्र इन्द्रकी नगरी समान ऐसी लंकाको दूरसे देखकर समस्त विद्याधर रामके अनुचर आश्चर्य को प्राप्तभए और हंसद्वीप में डरे किये वहां हंसपुर नगर राजा हंसरथ उसे युद्ध में जोत हंसपुरमें कीड़ा करते भए वहांसे भामण्डल पर फिर दूत भेजा और भामण्डन के आने की बांबा कर वहां निवास किया जिस जिस देश में पुरायाधिकारी गमन करें वहां वहां शत्रुओं को जीत महा भोग उपभोग को भेजें इन पुण्याधिकारी उद्यमन्तों से कोई परे नहीं हैं सव आज्ञाकारी हैं जो जो उनके मन में अभिलाषा होय सो सब इनकी मूठी में है इस लिये सर्व उपायकर त्रैलोक्य में सार ऐसा जो जिनराजका धर्म सो प्रशंसा योग्यहै जो कोई जंग जीत भयाचाहे वह जिनधर्मको आराधो ये भोग क्षणभंगुर हैं इनकी कहा बात यह वीतरागका धर्म निर्वाण
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