Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पराक्रमी धीरवीर विनयवान मेरे पतिके निकट कतेक हैं तब मन्दोदरी कहती भई । हे जानकी तैंने यह | क्या समझकर कही तू इसे न जाने है इसलिये ऐसा पूछे है इस सरीखे भरतक्षेत्रमें कौनहें इस क्षेत्र में यह एक ही है यह महासुभट युद्ध में कबार रावण का सहाई भयाहै यह पवनका पुत्र अंजनी का सुत रावणका भानजा जमाई है चन्द्रनखाकीपुत्री अनंगकुसमा परणाहै इस एकने अनेकजीतेहैं सदालोक इसके दर्शन को बांछे हैं चन्द्रमा की किरणवत् इसकी कीर्ति जगत्में फैल रही है लंकाका धनी इसे भाइयों से भी अधिक गिने है यह हनूमान पृथिवी पर प्रसिद्ध गुणोंकर पूर्ण है परन्तु यहबड़ा आश्चर्य है कि भूमिगोचरियों कादूत होय आयाहै तब हनुमानने कही तुमराजामय की पुत्री और रावणकी पटराणी दूती होय कर आई हो जिस पति के प्रसादसे देवोंके से सुख भोगे उसे अकार्य में प्रवर्त्ततें मने नहीं करों हो और ऐसे कार्यकी अनुमोदना करो हो अपना वल्लभ विष का भरा भोजनकरे उसको नहीं निवारोहो जो अपना भला बुरा न जाने उसका जीतव्य पशु समान और तुम्हारा सौभाग्यरूप सब से अधिक और पति परस्त्री रत भया उसकी दूंतीपना करो हो तुम सब बातों में प्रवीण परम बुद्धिमतीथी सो प्राकृत जीवों समान अविधि कार्यकरो हो तुम अर्धचक्री की महिषी कहिये पटराणी हो सो अब में तुमको महिमी कहिये भेंस समान जानूं हूं यह समाचार हनूमान के मुखसे सुन मन्दोदरी क्रोध रूप ोय बोली अहो तू दोषरूप है तेग वाचालपना निरर्थक है जो कदाचित रावण यह वात जाने कि यह सम का दूत होय सीतापै पायाहै तो जो काहूसे न करे ऐसी तोसे करे और जिसने रावणका बहनऊ चन्द्रनखा का पति मारा उसके सुग्रीवादिक सेवक भए रावणकी सेवा छोड़ी सो वे मन्द बद्धि है ये रंक
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