Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराख
६६.
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की सिद्धि वितताभया सौ मन्दोदरीको सर्व अन्तःपुर सहित सीता पै पठाई सो अपने नाथके मंचन से सर्व अन्तःपुर सहित सीता आई सो सीताको मन्दोदरी कहती भई । हे बाले आज तू प्रसन्न भई सुनी सो तैंने हमपर बड़ी कृपाकरी अब लोकका स्वामी रावण उसे अंगीकारकर जैसे देवलोककी लक्ष्मी इन्द्रको भजे ये बचन सुन सीता कौपकर मन्दोदरी से कहती भई हे खेचरी आज मेरे पतिकी बार्ता: आई है मेरे पति आनन्द हैं इसलिये मोहि हर्ष उपजा है तब मन्दोदरीने जानी इसे अन्न जल किये ग्यारह दिनभर सो वायसे वके हैं तब सीता मुद्रिका ल्यावनहारे से कहती भई, हे भाई मैं इस समुद्र के अंतद्वीप विषे भयानक बन पड़ी हूं सो कोअ उत्तमजीव मेरा भाई समान अतिवात्सल्य घग्णहारा मेरे पति की मुद्रिकाले आया है सो प्रकट दर्शनदेवे तब हनुमान महा भव्य जीव सीताका अभिप्रायजान मनमें बिचारता भवा जो पहिले पराया उपकार विचार फिर प्रतिकायरहोय बिपरहे सो अधमपुरुष हैं और जै पर जीवको आपदा विषे खेद खिन्न देख पराई सहायकरे तिन दयावन्तों का जन्म सफल है तब समस्त रावण की मन्दोदरी आदि देवे हैं और दूरही से सीताको देख हायजोड सीन निवाय नमस्कार करताभया कैसा है हनुमान महानिशंक कांतिकर चन्द्रमासमान दीप्तिकर सूर्य समान वस्त्र आभरणकर मंडिस रूपकर मुकट वानरका चिन्ह चन्दनकर चर्चित है सर्व अंग जिसका महा बलवान बज्र. वृषभ नासच संहनन सुन्दर केश रक्त हॉट कुंडल के उद्योन से महा प्रकाशरूप मनोहर मुख महा गुणवान महाप्रताप संयुक्त सीता के निकट श्रावता कैसा सोभता भया मानों भामंडल भाई लेयये को या प्रथमही अपना कल गोत्र माता पिताका नाम सुनाय कर फिर अपना नाम कहकर फिर
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